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भगवती आराधना वस्तुस्वआववाची। धर्माद्वस्तुस्वभावादनपेतमिति धर्म्यमित्युत्यते । यद्येवमार्तादेरपि धर्मादनपेतत्वमस्ति । सम्प्रयुक्तामनोज्ञवस्तुवियोगं, वियुक्तमनोज्ञवस्तुयोगं, रोगातङ्कादिप्रशमनं, अभिमतप्राप्ति च धर्ममाश्रित्य प्रवर्तमानत्वाद्धर्मादनपेततेति । नैष दोषः विवक्षितधर्मविशेषवृत्तिधर्मशब्दः । अत एव आज्ञापायविपाकसंस्थान मित्यादिकधर्मेयेयैरनपेतत्वाद्यद्धयानमाज्ञाविचयादिसंज्ञाभिरुच्यते। ध्येयं ज्ञेयवस्तुस्वरूपं तदविनाभावि च ज्ञानं ध्यानमिति संगतार्थं व्याख्येयं । अन्य तु व्याचक्षते-क्षमामार्दवार्जवादिकाद्धर्मादनेपतत्वाद्धयं इति । ननु च ध्यानं ध्येयाविनाभावि न च क्षमादयो धर्मा ध्येया येन तदनपेतत्वमुच्यते । अथ क्षमादिको दशविधो धर्मो ध्येयस्तस्मादनपेतस्तस्यान्यत्राप्रवृत्तेः 'आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय धर्म्यमिति सूत्र न युज्यते' । उत्तमक्षमादिधर्मपरिणतादात्मनोऽनपेतत्वात् धर्मादनपेततेति धर्म्यमित्युच्यत इति चेत शुक्लस्यापि धर्मादनपेतत्वा द्धम्यंध्यानता स्यादत्रोच्यते-रूढिशब्देषु क्वचित्संभाविनी क्रियामाश्रित्य शब्दव्युत्पत्तिमा क्रियते । न सा क्रिया तन्त्रं आशुगमनादश्व इति व्युत्पाद्यमानः स्थिते शयिते च प्रवर्तते न चाशुयायिन्यपि वैनतेयादौ प्रवर्तते । तद्वदिहापि शुक्ले न धर्मशब्दो वर्तते । धर्मादन्यत्राप्याज्ञादौ वर्तते । अथ कि ध्यानं, 'उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्ता
है। इसीसे गधेके सोंग नामकी कोई वस्तु नहीं है। अतः धर्म शब्द वस्तुस्वभावका वाचक है । धर्म अर्थात् वस्तु स्वभावसे जो सहित है उसे धर्म्य कहते हैं।
शंका-यदि ऐसा है तो आर्तध्यान आदि भी धर्मसे सहित है। क्योंकि प्राप्त अनिष्ट वस्तुके वियोग, वियुक्त इष्ट वस्तुके संयोग, रोग आदिकी शान्ति और इष्टको प्राप्ति आदि धर्मको लेकर आर्तध्यान होता है अतः वह भी धर्मसे युक्त होनेसे धर्मध्यान कहा जाना चाहिये ?
___ समाधान-यह दोष ठीक नहीं है। यहाँ धर्म शब्द विवक्षित धर्मविशेषको कहता है। अतः आज्ञा, अपाय, विपाक, संस्थान आदि धर्म जिसमें ध्येय होते हैं उस ध्यानको आज्ञाविचय आदि नामोंसे कहा जाता है। अन्य कुछ आचार्य क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि धर्मो से युक्त होनेसे धर्म्य कहते हैं।
__ शंका०-ध्यान ध्येयका अविनाभावी है। ध्येयके बिना ध्यान नहीं होता। किन्तु क्षमा आदि धर्म ध्येय नहीं है अतः उनसे युक्त ध्यानको धर्म्य नहीं कह सकते। यदि क्षमा आदि दस प्रकारका धर्म ध्येय है और उससे सहित ध्यान धर्म्य है तो वह ध्यान अन्यत्र प्रवृत्त नहीं हो सकता। तब तत्त्वार्थ सूत्रमें जो कहा है कि आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थानका चिन्तन धर्म्यध्यान है वह नहीं बनता; क्योंकि आत्मा तो उत्तम क्षमा आदि धर्मरूपसे परिणत होनेसे उनसे सहित ही है। वह उनसे हटकर अन्यमें प्रवृत्त होता नहीं । यदि कहोगे कि धर्मसे युक्तताका नाम धर्म्य है तो शुक्लध्यान भी धर्मसे युक्त होनेसे धर्म्यध्यान कहलायेगा।
समाधान-रूढिशब्दोंमें कहींपर होनेवाली क्रियाको लेकर शब्दकी मात्र व्युत्पत्ति की जाती है किन्तु वह क्रिया सिद्धान्तरूप नहीं होती। जैसे आशु-शीघ्र गमन करनेसे अश्व शब्द निष्पन्न होता है। किन्तु जब वह घोड़ा बैठा होता है या सोता है तब भी उसे अश्व (घोड़ा) ही कहते हैं । तथा गरुड़ वगैरह तेज चलते हैं किन्तु उन्हें अश्व नहीं कहते । उसी तरह यहाँ भी धर्म शब्दसे शुक्लध्यान नहीं कहा जाता। तथा उत्तम क्षमा आदि धर्मो से भिन्न आज्ञाविचय आदिको धर्म्य कहा जाता है।
शंका-ध्यान किसे कहते हैं ? समाधान-तत्त्वार्थ सूत्रमें कहा है उत्तम संहनन वालेके एकाग्रचिन्ता निरोधको ध्यान
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