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विजयोदया टीका
७५१ यस्तयोर्न विपरिणमते सोऽभिधीयते जितरागद्वेषः इति । तस्योपायो जितेन्द्रियतेत्याचष्टे--जह जिदिदिओ इति वाक्यशेषं कृत्वा सम्बन्धः । 'जिदिदिओ' इन्द्रियशब्देन रूपाद्यालम्बनोपयोगः परिगृह्यते स जितो येन स उच्यते जितेन्द्रिय इति । कथमसौ मतिज्ञानोपयोगो जेतुं शक्यते इति चेत् श्रुतज्ञानोपयोगे एव वृत्तात्मनः 'सत्यां, युगपदुपयोगद्वयस्यात्मन्येकदा विरोधादप्रवृत्तः । न च बाह्यद्रव्यालम्बनमपयोगमन्तरेणास्ति संभवो रागद्वेषयोः । संकल्पपुरोगौ हि ताविति । 'जिदकसायो' क्षमामार्दवार्जवसंतोषपरिणामनिरस्तकषायपरिणामप्रसरो जितकषाय इत्युच्यते । अरते रतेश्च कर्मण उदये उपजाती रत्यरतिपरिणामी, मोहो, मिथ्याज्ञानं च सम्यग्ज्ञानभावनया मथ्नाति यः स भण्यते 'अरविरदिमोहमधणो' । एवं निरस्तध्यानप्रतिपक्षपरिणामः । 'ज्झाणोवगदो होदि' ध्यानाख्यं परिणाममाश्रितो भवति । न हि रागादिभिर्व्याकुलीकृतस्य अर्थयाथात्म्यग्नाहि भवति विज्ञानं अविचलं च नावतिष्ठते । अविचलमेव वस्तुनिष्ठं ज्ञानं ध्यानमिष्यते ॥१६९३।।
धम्मं चदुप्पयारं सुक्कं च चदुविघं किलेसहरं ।
संसारक्खभीओ दण्णि वि ज्झाणाणि सो ज्झादि ।।१६९४।। 'धम्म चदुप्पयारं' धर्मध्यानं चतुःपकारं । धारयति वस्तुनो वस्तुतामिति धर्मः । स्वभावातिशयादेव चैतन्यादिकाज्जीवादिकं वस्तु भवति । स्वभावातिशयभावादेव वस्तु भण्यते न खरविषाणादि, तेन धर्मशब्दो
मनसे निश्चित करके राग दोषरूप परिणमन नहीं करता। उस यतिको जितराग द्वेष कहते हैं । उसका उपाय है जितेन्द्रिय होना । यहाँ इन्द्रिय शब्दसे रूपादिका आलम्बन लेकर जो उपयोग होता है उसका ग्रहण किया है । उसे जो जीत लेता है वह जितेन्द्रिय है।
यह जो मतिज्ञानरूप उपयोग है इसको कैसे जीता जा सकता है ? श्रुतज्ञानरूप उपयोगमें ही मनकी प्रवृत्ति होनेपर मतिज्ञानरूप उपयोग जीता जा सकता है। क्योंकि एक साथ एक आत्मामें दो उपयोगोंका विरोध होनेसे दो उपयोगोंकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती। और जबतक उपयोगका आलम्बन बाह्य द्रव्य न हो तबतक रागद्वेष नहीं हो सकते। क्योंकि रागद्वोष संकल्पपूर्वक होते हैं। तथा जो क्षमा, मार्दव, आर्जव और सन्तोष परिणामसे कषायरूप परिणामोंके प्रसारको निरस्त कर देता है उसे जितकषाय कहते हैं। अरति और रति कर्मका उदय होनेपर उत्पन्न हुए रति और अरतिरूप परिणामोंको और मोह अर्थात् मिथ्याज्ञानको जो सम्यग्ज्ञानरूप भावनासे मथता है उसे 'अरतिरति मोहमथन' कहते हैं । इस प्रकार जो ध्यानके विरोधी परिणामों को दूर करता है वह ध्यान नामक परिणामको करता है। जो रागादिसे व्याकुल रहता है उसका ज्ञान न तो अर्थके यथार्थस्वरूपको ही ग्रहण करता है और न निश्चल ही रहता है। और वस्तुनिष्ठ निश्चल ज्ञानको ही ध्यान कहते हैं ॥१६९३।।
गा०-धर्मध्यान चार प्रकारका है और शुक्ल ध्यान भी चार प्रकारका है। ये ही ध्यान कष्टको हरनेवाले हैं। चतुर्गति परावर्तनरूप संसारमें जो दुःख होते हैं उनसे भीत मुनि धर्म और शुक्लध्यानोंको ध्याता है ।।१६९४।।
टो०-जो वस्तुकी वस्तुताको धारण करता है उसे धर्म कहते हैं। चैतन्य आदिरूप स्वभावके अतिशयसे ही जीवादि वस्तु होती है। स्वभावरूप अतिशयके होनेसे ही वस्तु कहलाती
१. एव वृत्तमात्मनः सत्यं आ०-योगे आत्मनः प्रवृत्तौ सत्यां मु० ।
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