________________
विजयोदया टीका
७५७ पच्चाहरितु विसयेहिं इंदियाइं मणं च तेहिंतो ।
अप्पाणम्मि मणं तं जोगं पणिधाय धारेदि ॥१७०२॥ 'पच्चाहरित्तु' प्रत्याहृत्य । 'विसहि' विषयेभ्यः । 'इंदियाई' इन्द्रियाणि 'मणं च' मनश्च व्यावर्त्य । 'तेहितो' विषयेभ्यः । 'मणं तं धारेदि' तन्मनो धारयति । क्व ? 'अप्पाणंहि आत्मनि । 'जोगं' योगं वीर्यान्तरायक्षयोपशमजवीर्यपरिणामं । 'पणिधाय' 'प्रणिधाय स्थाप्य । एतदुक्तं भवति वीर्यपरिणामेन नोइंद्रियमति धारयतीति ॥१७०२।। कृतमनोनिरोधः किं करोतीत्याशङ्क्याह
एयग्गेण मणं रुभिऊण धम्मं चउन्विहं झादि ।
अणापायविवागं विचयं संठाणविचयं च ॥१७०३।। 'एयग्गेण' एकध्येयमुखतया । 'मणं भिदूण' मनो निरुध्य । 'धम्म' धम्यं वस्तुस्वभावं । 'चदुन्विहं' चतुर्विधं चतुर्विकल्पं । 'झादि' ध्यायति । अभ्यन्तरपरिकरोऽयमक्तः सूत्रकारेण । बाह्यः परिकर उच्यते । पर्वतगुहायां, गिरिकंदरे, दयाँ, तरुकोटरे, नदीपुलिने, पितृवने, जीर्णोद्याने, शून्यागारे वा व्यालमृगाणां पशूनां, पक्षिणां, मनुष्याणां वा ध्यानविघ्नकारिणां सन्निधानशून्ये, तत्रस्थैरागन्तुभिश्च जीवर्वजिते, उष्णशीतातपवातादिविरहिते, निरस्तेन्द्रियमनोविक्षेपहेतो, शुचावनुकूलस्पर्श भूभागे मन्द-मन्दं प्राणापानप्रचारः नाभेरूद्ध्वं हृदि ललाटेऽन्यत्र वा मनोवृत्ति यथापरिचयं प्रणिदधातीति बाह्यपरिकरः । 'आणापायविपाकविचये' आज्ञाज्ञानमें मनको लगाकर श्रुतसे जाने हुए विषयोंका स्मरण करते हुए आत्मामें लीन हो। यह ध्यान संसारसे छूटनेके लिये किया जाता है ॥१७०१॥
गा०-विषयोंसे इन्द्रियोंको और मनको हटाकर वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुए वीर्य परिणामको स्थापित करके आत्मामें मनको लगाता है। अर्थात वीर्य परिणामरे शुद्ध आत्मामें मनको धारण करता है ॥१७०२।।
मनको रोककर क्या करता है, यह कहते हैं
गा०–एक विषयमें मनको रोककर आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय इन चार प्रकारके धर्मध्यानको ध्याता है ॥१७०३।।
टो०-ग्रंथकारने यह ध्यानकी अभ्यन्तर सामग्री कही है। टीकाकारने बाह्य सामग्री इस प्रकार कही है
पर्वतकी गुफामें, या पहाड़की कन्दरामें, या वृक्षके कोटरमें या नदीके किनारे या स्मशान में या उजड़े हुए उद्यानमें या शून्य मकानमें, जहाँ ध्यानमें विघ्न करनेवाले सर्प मृग आदि पशु पक्षी और मनुष्योंका वास न हो, तथा वहाँ रहनेवाले और इधर-उधरसे आनेवाले जीव जन्तु न हों, गर्म या सर्द, घाम और वायु आदिसे रहित हो, जहाँ इन्द्रिय और मनको चंचल करनेके साधन न हों । ऐसे स्थानमें जो जमीनका भाग साफ सुथरा हो, उसका स्पर्श अनुकूल हो, उसपर स्थित होकर धीरे-धीरे श्वास उच्छ्वास लेते हुए नाभिसे ऊपर हृदयमें या मस्तकपर अथवा अन्य स्थानमें अपने मनोव्यापारको रोकता है। यह ध्यानकी बाह्य सामग्री है। ऐसा करके चार प्रकारका धर्मध्यान करता है। उनमेंसे आज्ञाविचय नामक धर्मध्यानका स्वरूप कहते हैं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org