________________
भगवती आराधना
विचयमपायविचयं, विपाकविचयं, 'संठाणविचयं च ' संस्थानविचयं च । तत्राज्ञाविचयो निरूप्यते - कर्माणि समूलोत्तरप्रकृतीनि तेषां चतुर्विधो वन्धपर्याय उदयफलविकल्पः जीवद्रव्यं मुक्त्यवस्थे त्येवमादीनामतो न्द्रियत्वात् श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमप्रकर्षाभावात् बुद्धघतिशये असति दुरवबोधं यदि नाम वस्तुतत्त्वं तथापि सर्वज्ञज्ञानप्रामाण्यात् आगमविषयतत्त्वं तथैव नान्यथेति निश्चयः सम्यग्दर्शनस्वभावत्वान्मोक्षहेतुरित्याज्ञाविचार निश्चयज्ञानं आज्ञाविचयाख्यं धर्मध्यानं । अन्ये तु वदंति स्वयमधिगतपदार्थतत्त्वस्य परं प्रतिपादयितुं सिद्धान्तनिरूपितार्थप्रतिपत्तिहेतुभूतयुक्ति गवेषणावहितचित्ता सर्वज्ञज्ञानप्रकाशनपरा अनया युक्त्या इयं सर्वविदामाज्ञावaaf शक्येति प्रवर्तमानत्वादाज्ञाविचय इत्युच्यत इति । अनादौ संसारे स्वैरंमनोवाक्कायवृत्तेर्मम अशुभमनोवाक्कायेभ्योऽपायः कथं स्यादिति अपाये विचयो मीमांसास्मिन्नस्तीत्यपाय विचयं द्वितीयं धर्मध्यानं । जात्यन्ध संस्थानीया मिथ्यादृष्टयः समीचीन मुक्तिमार्गापरिज्ञानात् दूरमेवापयन्ति मार्गादिति सन्मार्गापाये प्राणिनां विचयो विचारो यस्मिंस्तदपायविचयं इत्युच्यत इति । मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रेभ्यः कथमिमे प्राणिनोऽपेयुरिति स्मृतिसमन्वाहारोऽपायविचयः ॥ विपाकविचय उच्यते - समूलोत्तरप्रकृतीनां कर्मणामष्टप्रकाराणां चतुर्विधबन्धपर्यायाणां मधुरकटुक विपाकानां तीव्र मध्यमंदपरिणामप्रपञ्चकृतानुभवविशेषाणां द्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षाणां एतासु गतिषु योनिषु वा इत्थंभूतं फलमिति विपाके कर्मफले विचयो विचारोऽस्मिन्निति विपाकविचयः । वेत्रासनझल्लरींमृदंगसंस्थानो लोक इति लोकत्रय संस्थाने विचयो विचारोऽस्मिन्निति संस्थानविचयता ॥ १७०३ ॥
७५८
मूल प्रकृति और उत्तर प्रकृतियों सहित कर्म, उनके चार प्रकारके बन्ध, उदय और फलके भेद, जीव द्रव्य, मुक्ति अवस्था ये सब और इसी प्रकारके अन्य पदार्थ अतीन्द्रिय हैं । तथा श्रुतज्ञानावरणके क्षयोपशमका प्रकर्ष न होनेसे विशेष बुद्धि भी नहीं है । ऐसी अवस्थामें यद्यपि वस्तु तत्त्व समझमें नहीं आता तथापि सर्वज्ञके ज्ञानके प्रमाण होनेसे आगममें तो तत्त्व जैसा कहा है, वह वैसा ही है, अन्य रूप नहीं है, इस प्रकारका निश्चय सम्यग्दर्शन रूप होनेसे मोक्षका कारण है । इस प्रकार सर्वज्ञकी आज्ञाके विचारका निश्चयरूप ज्ञान आज्ञाविचय नामक धर्मध्यान है अन्य कुछ आचार्य ऐसा कहते हैं- स्वयंको तो पदार्थों और तत्त्वोंका सम्यग्ज्ञान है । किन्तु दूसरोंको समझानेके लिये सिद्धान्त में कहे गये अर्थोंका ज्ञान करानेमें हेतुभूत युक्तियोंकी खोज में मनको लगाना कि इस युक्तिके द्वारा सर्वज्ञकी आज्ञाको समझाया जा सकता है, इसे भी सर्वज्ञकी आज्ञाके प्रकाशनमें संलग्न होनेसे आज्ञाविचय धर्मध्यान कहते हैं । इस अनादि संसारमें स्वच्छन्द मन वचन कायकी प्रवृत्तिमेंसे मेरा अशुभ मन वचन कायसे अपाय अर्थात् छुटकारा कैसे हो इस प्रकार अपायका विचय अर्थात् विचार जिसमें हो वह अपायविचय नामक दूसरा धर्मध्यान है । जन्म से अन्ये मनुष्यों के समान मिथ्यादृष्टि जीव समोचीन मोक्षमार्गको न जाननेसे मोक्षमार्गसे दूर ही रहते हैं । इस प्रकार सन्मार्गसे प्राणियोंके भटकनेका विचय अर्थात् विचार जिसमें हो उसे अपायविचय कहते हैं । अथवा संसारके ये प्राणी मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र से कैसे अलग हों, कैसे उसे छोड़ें इस प्रकार बार-बार चिन्तन करना अपायविचय है । विपाकविचयका स्वरूप कहते हैं - मूल प्रकृति और उत्तर प्रकृति सहित आठ प्रकारके कर्मोंका और उनके चार प्रकारके बन्धोंका तथा द्रव्य क्षेत्र काल भावकी अपेक्षासे तीव्र मध्य और मन्द परिणामों के विस्तारसे होनेवाले विपाकका तथा उनके मधुर और कटुक फलोंका कि इन गतियोंमें अथवा योनियोंमें इस प्रकारका फल होता है । इस तरह विपाक अर्थात् कर्मफलका विषय अर्थात् विचार जिसमें हो वह विपाकविचय धर्मध्यान है । अधोलोकका आकार वेत्रासनके समान है, मध्यलोक
1
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org