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भगवती आराधना विरतप्रमत्तसंयतानां" "हिंसान्तस्तेयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयो"रिति [ त० सू० ९।३५ ] गुणस्थानमात्राश्रयणेनैव स्वामिनिर्देशकृतत्वात् ।
___ अत्र प्रतिविधीयते-निर्जराहेतुतया विकल्पे ध्यानेषु तत्प्रस्तुते युक्तं साक्षात् मुक्त्यङ्ग ध्यानं निर्देष्टुमिति मन्यमानेन उत्तमसंहननग्रहणं कृतं सूत्रकारेण । यद्येवं आर्तरौद्रधर्म्यशक्लानीति सूत्रमुत्तरं नोपपद्यते न निर्जराहेतुतास्त्यातरौद्रयोरिति । अत्रोच्यते 'उत्तमसंहननस्यकानचिन्तानिरोधो ध्यानमितीदं सूत्र" मुख्यं घ्यानं मुक्त्यङ्गमुद्दिश्य प्रवृत्तमुत्तरं तु सूत्रमार्तरौद्रधय॑शुक्लानीत्येतदेकाग्रचिन्तानिरोधसामान्यान्तर्भूतं अनभिमतमपि ध्यानं निरूपयति । प्रस्तुतस्यैव ध्यानस्य अनभिमतध्यानविविक्तरूपमधिगमयितुमतः प्रासंगिकयोः आतरौद्रयोरुत्तरन्यास इति न दोषः । अथवोत्तमसंहननग्रहणं वीर्यातिशयवत आत्मन उपलक्षणं, उत्तमसंहननस्य वीर्यातिशयवतो आत्मनो यदेकवस्तुनिष्ठं ध्यानं तत् ध्यानमिति सूत्रार्थः ॥ 'सुक्कं च चदुविधं' शुक्लं च ध्यानं चतुर्विधं ध्यानं क्लेशहरं संसारदुःखभीरुः चतुर्गतिपरावर्तनेन यानि दुःखानि तेम्यो भीतः । 'दोण्णि वि' द्वे 'झाणाणि' ध्याने धर्म्यशुक्ले 'सो' क्षपकः 'झादि' ध्यायति ॥१६९४॥
ण परीसहेहिं संताविदो वि सो झाइ अझरुद्दाणि ।
सुद्रुवहाणे सुद्धं पि अट्टरुद्दा वि णासंति ॥१६९५।। 'ण परिस्सहेहि' स क्षपकः 'परिस्सहेहि' परीषहैः । 'संतावियो वि' बाधितोऽपि 'अट्टाहाणि' आत्तं क्योंकि आजके मनुष्योंके भी आर्त और रौद्रध्यान होते हैं। तथा उक्त कथनका विरोध अन्य सूत्रोंसे भी होता है। क्योंकि तत्त्वार्थसूत्रमें ही गुणस्थान मात्रका आश्रय लेकर आर्त और रौद्रध्यानके स्वामियोंका कथन किया है । यथा-आर्तध्यान अविरत, देशविरत और प्रमत्तसंयतों के होता है । रौद्रध्यान अविरत और देशविरतके होता है।
समाधान-तत्त्वार्थसूत्रकारने नौवें अध्यायमें निर्जराके कारणोंका विवेचन करते हए जब ध्यानका वर्णन किया तो 'साक्षात् मुक्तिकारण ध्यानका निर्देश करना उचित है' ऐसा मानकर ध्यानके लक्षणमें उत्तम संहननपदका ग्रहण किया है।
शंका-यदि ऐसा है तो 'आर्त रौद्र धर्म और शुक्ल' ये चार ध्यान है ऐसा सूत्र नहीं कहना चाहिये था क्योंकि आर्त रौद्र निर्जराके कारण नहीं है।
समाधान–'उत्तम संहनन' इत्यादि सूत्र जो मुख्य ध्यान मुक्तिके कारण हैं उनको लक्ष्य करके रचा गया है। आगेका सूत्र, जिसमें ध्यानके चार भेदोंके नाम गिनाये हैं, एकाग्न चिन्ता निरोध सामान्यमें अन्तर्भूत सब ध्यानोंको बतलाता है। अर्थात् आर्त रौद्रमें भी ध्यान सामान्यका लक्षण घटित होता है इसलिये ध्यानके भेदोंमें उनको गिनाया है । यद्यपि वे मोक्षके कारण नहीं हैं। अतः अनिष्ट ध्यानोंसे भिन्न प्रस्तुत धर्म्य शुक्लध्यानोंका ही स्वरूप बतलानेके लिये सूत्रकारने आर्त और रौद्रध्यानोंका कथन किया है। अथवा उत्तम संहनन पद अतिशय वीर्यशाली आत्माका उपलक्षण है। उत्तमसंहनन अर्थात् अतिशय वीर्यसे विशिष्ट आत्माके जो एक वस्तुनिष्ठ ध्यान होता है वही ध्यान है, ऐसा उस सूत्रका अर्थ होता है । संसारसे भीत क्षपक धर्म्य और शुक्लध्यानोंको ध्याता है ॥१६९४||
गा०-वह क्षपक परीषहोंसे पीड़ित होनेपर भी आर्त और रौद्रध्यान नहीं करता। क्योंकि
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