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विजयोदया टीका अवहट्ट कायजोगे व विप्पओगे य तत्थ सो सव्वे ।
सुद्धे मणप्पओगे होइ णिरुद्धज्झवसियप्पा ॥१६८९।। 'अवहट्टकायजोगे' वाग्योगान्काययोगांश्च सर्वान्निराकृत्य असावत्र मनोयोगे शुद्ध स्थितो भवति । विषयान्तरसंचारान्निरुद्धं अध्यवसितं च आत्मरूपं ज्ञानाख्यं यस्य सः ।।१६८९।।
एवं सव्वत्थेसु वि समभाव उवगओ विसुद्धप्पा ।
मित्ती करुणं मुदिदमुवेक्ख खवओ पुण उवेदि ॥१६९०।। ‘एवं सव्वत्येसु वि' एवं सर्ववस्तुष समतापरिणाममुपगतो विशुद्धचित्तः, मैत्री, करुणां, मुदितामुपेक्षा च पश्चादुपैति क्षपकः ॥१६९०।। मैत्रीप्रभृतीनां चिन्तानां विषयमुपदर्शयति
जीवेसु मित्तचिंता मेत्ती करुणा य होइ अणुकंपा ।
मुदिदा जदिगुणचिंता सुहदुक्खधियासणमुवेक्खा ॥१६९१।। 'जोवेसु मित्तचिता' अनन्तकालं चतसृषु गतिषु परिभ्रमतो घटीयन्त्रवत्सर्वे प्राणभृतोऽपि बहुशः कृतमहोपकारा इति तेषु मित्रताचिन्ता मैत्री। 'करुणा य होइ अणुकंपा' शारीरं, आगन्तुकं मानसं स्वाभाविक च दुःखमसामाप्नुवतो दृष्ट्वा हा वराका मिथ्यादर्शनेनाविरत्या कषायेणाशुभेन योगेन च समुपाजिताशुभकर्मपर्यायपुद्गलस्कन्धतदुदयोद्भवा विपदो विवशाः प्राप्नुवन्ति इति करुणा अनुकम्पा । मुदिता नाम यतिगुणचिन्ता यतयो हि विनीता, विरागा, विभया, विमाना, विरोषा, विलोभा इत्यादिकाः । सुखे अरागा दुःखे वा अद्वेषा उपेक्षेत्युच्यते ॥१६९१॥ समता गता।
गा०-वह सब काययोगों और वचनयोगोंको दूरकर शुद्ध मनोयोगमें स्थिर होता है। क्योंकि वह अपने ज्ञानरूप आत्माको युक्ति और तर्क वितर्कसे निश्चित करके उसे अन्य विषयोंमें जानेसे रोकता है ॥१६८९||
गा०—इस प्रकार सब वस्तुओंमें समताभाव धारण करके वह क्षपक निर्मल चित्त हो जाता है। फिर मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा भावनाको अपनाता है ॥१६९०।। ___ मैत्री आदि भावनाओंको कहते हैं
गा०-टी०-अनन्तकाल चारों गतियोंमें भ्रमण करते हुए घटीयंत्रकी तरह सभी प्राणियोंने मेरा बहुत उपकार किया है अतः उनमें मित्रताकी भावना होना मैत्री है। असह्य शारीरिक, आगन्तुक, मानसिक और स्वाभाविक दुःखको भोगते हुए प्राणियोंको देखकर, अरे बेचारे मिथ्यादर्शन, अविरति, कषाय और अशुभ योगसे उपार्जित अशुभ कर्मरूप पुद्गल स्कन्धोंके उदयसे उत्पन्न हुई विपदाओंको विवश होकर भोगते हैं। इस प्रकारके भावको करुणा या अनुकंपा कहते हैं । यतियोंके गुणोंके चिन्तनको मुदिता कहते हैं । यतिगण विनयी, रागरहित, भयरहित, मानरहित, रोषरहित और लोभरहित होते हैं इत्यादि चिन्तन मुदिता है। सुखमें राग और दुःखमें द्वष न करना उपेक्षा है ।।१६९१।।
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