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भगवती आराधना जदि वि य से चरिमंते समुदीरदि मारणंतियमसायं ।
सो तह वि असंमूढो उवेदि सन्वत्थ समभावं ।।१६८५॥ 'जदि वि य से' यद्यपि तस्य क्षपकस्य चरमकालान्ते मारणान्तिकं दुःखं भवेत् सो कवचेनोपगृहीतः क्षपकः तथापि असंमूढः समभावं सर्वत्रोपैति ॥१६८५।।
एवं सुभाविदप्पा विहरइ सो जाववीरियं काये ।
उ'ट्ठाणे संवेसणे सयणे वा अपरिदंतो ॥१६८६॥ ‘एवं सुभाविवप्पा' निर्यापकेन सूरिणा गदितोर्थ एवमित्युच्यते । तेन सम्यग्भावितचित्तः सन्विहरदि प्रवर्तते अपरिश्रान्तः । 'जाववीरियं काये' यावच्छरीरे बलमस्ति उत्थाने, शयने आसने वा ॥१६८६॥
जाहे सरीरचेट्ठा विगदत्थामस्स से यदणुभूदा ।
देहादि वि ओसग्गं सव्वत्तो कुणइ णिरवेक्खो ॥१६८७।। 'जाहे सरीरचेवा' यदा शरीरचेष्टा विगतबलस्य तस्य स्वल्पा जाता, तदा शरीरादुत्सर्ग करोति सर्वतो मनोवाक्कार्यनिरपेक्षः ।।१६८७॥ तदेवं शरीरादिकं त्याज्यमुत्तरगाथया दर्शयति
सेज्जा संथारं पाणयं च उवधि तहा सरीरं च ।
विज्जावच्चकरा वि य वोसरह समत्तमारूढो ।।१६८८।। 'सेज्जा' वसति । संस्तरं तृणादिकं, पानं पिच्छं, शरीरं च वैयावृत्यकरांश्च व्युत्सृजति । 'समत्तमारूढो' समाप्तं संपूर्ण रत्नत्रयमारूढः ।।१६८८।।
गा०-यद्यपि उस क्षपकको अन्तिम समयमें मरण प्राप्त होनेतक दुःख होता है तथापि वह कवचसे उपगृहीत क्षपक शरीरसे भी मोह न रखता हुआ सर्वत्र समभाव धारण करता है ॥१६८५॥
गा-इस प्रकार निर्यापकाचार्यके द्वारा कहे गये पदार्थ स्वरूपसे अपने चित्तको सम्यक् रूपसे भावित करके वह क्षपक जबतक शरीरमें शक्ति रहती है तबतक बिना थके उठने बैठने और सोने में स्वयं प्रवृत्ति करता है ।।१६८६।।
गा०-जब शक्तिहीन होनेपर उसकी शारीरिक चेष्टा मन्द पड़ जाती है तब वह मन वचन कायसे निरपेक्ष होकर शरीरका भी त्याग करता है ॥१६८७।।
आगेकी गाथासे शरीर आदिको त्याज्य बतलाते हैं
गा०-सम्पूर्ण रत्नत्रयमें आरूढ हुआ वह क्षपक वसति, तृणादि रूप संस्तर, पानक, पिच्छी, शरीर तथा वैयावृत्य करनेवालोंका भी त्याग कर देता है अर्थात् उन सबसे भी निरपेक्ष हो जाता है ॥१६८८॥
१. उट्ठाणे सयणे वा णिसीयणे -आ० मु० ।
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