________________
विजयोदया टीका
७४३ 'अण्णं इमं सरीरं' अन्यदिदं शरीरं । अन्यो जन्तुरिति निश्चितमतिदुखसंक्लेशसंपादनोद्यतां मा कृथाः शरीरे ममताम् ॥१६६५।।
सव्वं अधियासंतो उवसग्गविधि परीसहविधिं च ।
णिस्संगदाए सल्लिह असंकिलेसेण तं मोहं ॥१६६६।। 'सम्वं उवसग्गविहि' सर्व उपसर्गविकल्पं परीषहविकल्पं च सहमानो मोहं भवांस्तनूकुरु । 'णिस्संगतया' असंक्लेशेन च ॥१६६६॥
ण वि कारणं तणादोसंथारो ण वि य संघसमवाओ।
साधुस्स संकिलेसंतस्स य मरणावसाणम्मि ॥१६६७|| 'ण वि कारणं तणादी' नैव कारणं तृणादिसंस्तरः सल्लेखनायां, नापि संघसमुदायः मरणावसाने संक्लिश्यतः साधोः ॥१६६७।।
जह वाणियगा सागरजलम्मि णावाहिं रयणपुण्णाहिं ।
पट्टणमासण्णा वि हु पमादमूढा वि वज्जति ॥१६६८॥ 'जह वाणियगा' यथा वणिजो रत्नसंपूर्णाभिर्नीभिः सह विनश्यन्ति । समुद्रजलमध्ये प्रमादेन मूढाः पत्तनान्तिकमागता अपि ॥१६६८॥
सल्लेहणा विसुद्धा केई तह चेव विविहसंगेहिं । .
संथारे विहरंता वि संकिलिट्ठा विवज्जंति ॥१६६९॥ 'सल्लेहणा विसुद्धा वि' शरीरसल्लेखनाभावात् । सल्लेखनया विशुद्धा अपि संतः । पूर्व केचित् विविध
' गा०-यह शरीर भिन्न है और जीव भिन्न है ऐसा निश्चय करके दुःख भय और क्लेशको करनेवाली ममता शरीरमें मत कर अर्थात् शरीरसे ममत्वको त्याग, वही सब दुःखोंका मूल है ॥१६६५॥
गा०-सब उपसर्गोंके प्रकारोंको और सब परीषहके प्रकारोंको सहन करते हुए तुम निःसंगत्वभावनासे संक्लेश परिणामोंके बिना मोहको कृश करो ॥१६६६॥
गा०-टी०-यदि मरते समय साधुके परिणाम संक्लेशरूप होते हैं तो तुण आदिका संथरा या वैयावृत्य करनेवाले साधुका जमघट सल्लेखनाका कारण नहीं हो सकता । अर्थात् तृणादिके संथरा और वैयावृत्य करनेवाले साधु तो सल्लेखनाके बाह्य कारण है अन्तरंग कारण तो क्षपकका आर्त रौद्र रहित परिणाम ही है। उसके अभावमें केवल बाह्य कारणोंसे सल्लेखना नहीं हो सकती ॥१६६७॥ - गा०-जैसे वणिक रत्नोंसे भरी नावोंके साथ नगरके समीप तक आकर भी प्रमादवश मूढ होकर सागरके जलमें डूब जाते हैं ॥१६६८॥
गा-टी०-उसी प्रकार पहले विशुद्ध भावसे शरीरकी सल्लेखना करनेवाले भी कुछ क्षपक रागद्वेषादि भावरूप विविध परिग्रहोंके साथ संथरेपर आरूढ़ होते हुए भी संक्लेश परिणामों
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org