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विजयोदया टीका
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आत्मानुभूतान्यपि न स्मरन्ति दुःखानि केचिद्धि नराः प्रमत्ताः। दृष्टश्रुतान्यन्यसमुद्भवानि ते विस्मरन्तीति न विस्मयोऽत्र ॥१॥ प्रमादलोपार्थमतो नरेभ्यो ज्ञातोऽपि सोऽर्थः परिकथ्य एवं । संस्मार्यमाणे प्रभवन्ति यस्मिन्गुणा न दोषाश्च समुद्भवन्ति ॥२॥ शीते निवातं सलिलादि चोष्ण क्षेमं 'भये संश्रयितुं समर्थाः । ये जंगमास्ते न त सास्ति शक्तिरेकेन्द्रियाणां बत जीवकानां ॥३॥ सर्वोपसर्गानिह मोक्षकामा यथा विरागा मुनयः सहन्ते।' सर्वोपसर्गानवशा वराका एकेन्द्रिया ये च सवा सहन्ते ॥४॥ जात्यन्धका बधिराश्च बाला रथ्यासु रक्षाशरणप्रहीणाः । प्रमद्यमाना गजवाजियानर्यथा म्रियेरन् विवशा वराकाः ॥५॥ तथा प्रकारो विकलेन्द्रियाणां प्रवर्तते नारकदुःखतुल्यः। मत्युः समंतात् सततं सुघोरो ग्रामेष्वरण्येषु च निःशरण्यः ॥६॥ गोजाविकाचैः परिमद्यमाना यानादिचक्रः परिपिष्यमाणाः । अन्योन्यवक्त्रैः परिमृष्यमाणाः दुःवं च मृत्युं च हि ते लभन्ते ॥७॥ छिन्नैः शिरोभिश्चरणश्च भग्नरुजादितश्चावयवैस्तनूनां । चिरं स्फुरन्तः प्रतिकारहीनाः कृच्छेण केचिज्जहति स्वमायुः ॥८॥ निमज्यमाना उदबिन्दुनापि निश्वासवातैरपि चोद्यमानाः । प्रचोद्यमाना लघुनोष्मणापि नश्यन्ति ये तेषु कथा भवेत् का ॥९॥
कितने ही प्रमादी मनुष्य अपने द्वारा अनुभूत दुःखोंको भी भूल जाते हैं। तब देखे हुए, सुने हुए और दूसरोंके भोगे हुए दुःखोंको भूल जायें तो इसमें क्या आश्चर्य है । अतः मनुष्योंके द्वारा जाना हुआ भी यथार्थ प्रमाद दूर करनेके लिये कहा जाता है। जिसका स्मरण होनेपर गुण प्रकट होते हैं और दोष प्रकट नहीं होते। जो जंगम प्राणी होते हैं वे शीतमें वायु रहित स्थानमें, गर्मीमें जलादिमें, भय उपस्थित होनेपर निरापद स्थानमें आश्रय ले सकते हैं। किन्तु खेद है कि एकेन्द्रिय जीवोंमें ऐसी शक्ति नहीं होती। जैसे मोक्षके इच्छुक विरागी मनि सब उपसर्गोंको सहते हैं। पराधीन बेचारे एकेन्द्रिय भी सब उपसर्गोंको सदा सहते हैं। जैसे जन्मसे अन्धे गूंगे बहरे बालक रक्षा और शरणसे विहीन हुए बेचारे विवश होकर मार्गों में हाथी घोड़े सवारी आदिसे कुचलकर मर जाते हैं। विकलेन्द्रिय जीवोंकी भी ऐसी ही दशा है। उनका दुःख भी नारकियोंके समान है। ग्रामों और वनोंमें भी उनको शरण नहीं हैं। उनकी घोर मृत्यु सदा होती रहती है। गाय बैल, बकरा मेढा आदिके द्वारा वे कुचले जाते हैं। गाड़ी आदिके चकोंके नीचे पिस जाते हैं। परस्परमें एक दूसरेके मुखोंके द्वारा पीड़ित होकर वे दुःख और मृत्युको प्राप्त होते हैं। सिरोंके भग्न हो जानेपर, पैरोंके टूट जानेपर तथा शरीरके अवयवोंके रोगसे ग्रस्त होनेपर वे चिरकाल तक तड़फड़ाते रहते हैं, उनका कोई इलाज नहीं करता । बड़े कष्टसे वे आयु पूरी करते हैं। जो जलकी एक बूंदमें भी डूब जाते हैं, प्राणियोंके श्वासकी वायुसे भी पीड़ित होते हैं । जरा सी भी गर्मीसे पीड़ित होनेपर मर जाते हैं उनकी क्या कथा कही जाये ?
१. भवे मु० । २. नियंते मु० ।
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