________________
७३८
भगवती आराधना अवधिट्ठाणं णिरयं मच्छा आहारहेदु गच्छंति ।
तत्थेवाहारभिलासेण गदो सालिसिच्छो वि ।।१६४४॥ अवधिट्ठाणमित्यादिका गाथा ॥१६४४॥
चक्कघरों वि सुभूमो फलरस गिद्धीए वंचिओ संतो।
णट्ठी समुद्दमज्झे सपरिजणो तो गओ णिरयं ॥१६४५॥ - 'चक्कघरो वि सुभूमो' नाम चक्रलांछनः फलरसगृद्धया वंचितः समुद्रमध्ये विनष्टः सपरिजनः । पश्चाच्च नरकं गतः ।।१६४५।।
आहारत्थं काऊण पावकम्माणि तं परिगओ सि ।
संसारमणादीयं दुक्खसहस्साणि पावंतो ॥१६४६।। आहारार्थ पापानि कर्माणि कृत्वा संसारमनादिकं प्रविष्टो भवान्दुःखसहस्राणि वेदयमानः ।।१६४६ ।
पुणरिव तहेव संसारं किं भमिणमिच्छसि अणंतं ।
जं णाम ण वोच्छिज्जइ अज्जवि आहारसण्णा ते ॥१६४७।। 'पुणरवि' पुनरपि । तथैव संसारमनंतमटितु किमिच्छसि ? यस्मादद्याप्याहारे तृष्णा न नश्यति ॥१६४७॥
जीवस्स पत्थि तित्ती चिरंपि भुंजतस्य आहारं ।
तित्तीए विणा चित्तं उव्वूरं उधुदं होइ ॥१६४८॥ 'जोवस्स पत्थि तित्ती' जीवस्य नास्ति तृप्तिः चिरमप्याहारं भुञ्जानस्य । तृप्त्या च विना चित्तं नितरामुच्चलं भवति ॥१६४८।। है इसलिये उसे सालिसिक्थ कहते हैं। वह कानमें बैठा हुआ मनमें, सोचा करता है कि यदि मेरा शरीर ऐसा होता तो क्या एक भी जन्तु बचकर जा सकता मैं सबको खा जाता। इसी संकल्पसे वह भी मरकर सातवें नरक जाता है
गा०--महामत्स्य आहारके ही कारण सातवें नरकमें मरकर जाता है और उसी महामत्स्यके कानमें रहनेवाला सालिसिक्थ मत्स्य भी आहारके संकल्पसे मरकर सातवें नरक जाता है ॥१६४४॥
गा०-सुभौभ नामक चक्रवर्ती भी एक देवके द्वारा लाये गये फलके रसकी लम्पटताके कारण ठगा जाकर परिवारके साथ समुद्रमें डूब गया और मरकर नरकमें गया ॥१६४५॥
गा.-हे क्षपक ! पूर्वजन्मोंमें आहारके ही लिये पाप कर्म करके तुम हजारों दुःख भोगते हुए अनादि संसार में प्रविष्ट हुए ।।१६४६||
अब क्या पुनः अनन्त संसारमें भ्रमण करनेकी इच्छा है जो अभी भी तुम्हारी आहार संज्ञा नष्ट नहीं होती ॥१६४७।।
गाचिरकाल तक आहार खाकर भी जीवकी तृप्ति नहीं होती। और तृप्तिके बिना चित्त अत्यन्त व्याकुल रहता है ॥१६४८।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org