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भगवती आराधना
पुरिसस्स पावकम्मोदएण ण करंति वेदणोवसमं ।
सुट्टु पत्ताणि वि ओसघाणि अदिवीरियाणी वि ।।१६०५ ।।
'पुरिसस्स पावकम्मोदयम्मि' पुरुषस्य पापकर्मोदये 'न करेंति' न कुर्वन्ति । 'वेदणोवसमं' वेदनोपशमं । 'सुठु पउत्ताणि वि' सुष्ठु प्रयुक्तान्यपि । 'ओसधाणि वि' औषधानि 'अदिवीरियाणि' अतिवीर्याण्यपि ॥। १६०५ ॥
रायादिकुडुंबीणं अदयाए असंजमं करंताणं ।
घणंतरी विकादु ण समत्थो वेदणोवसमं || १६०६॥
'रायादिकुडु बीणं' राजादीनां कुटुम्बीनां अनेक द्रव्यसंपत्परिचारकसंपत्प्रख्यातानां । 'अदयाए असंजमं 'वेदणोवसमं' करेंताणं' दयामन्तरेणासंयमं कुर्वतां । ' घण्णंतरी वि कार्टु' धन्वंतरिरपि कर्तुं असमर्थः । वेदनाया उपशमं । वैद्यसंपत्ता धन्वन्तरे ग्रहणेन सूचिता || १६०६ ॥
किं पुण जीवणिकाये दयंतया जादणेण लद्धेहिं । फासुगदव्वेंहिं करेंति साहुणो वेदणोवसमं || १६०७।।
' कि पुर्ण' किं पुनः । 'जीवणिकाए' जीवनिकायान् । 'दयंतगा' दयमानाः । 'जादणेण लद्बहि' याञ्चया लब्धः । 'फासुगदव्वेहि' प्रासुकद्रव्यैः । 'करेज्ज' कुर्यात् । 'साहुणो वेदणोवसमं' साधोर्वेदनोपशमं । परिचारकसंपदभावो दश्यंते 'जोवणिकाए दयंतगा' इत्यनेन । यथा व्याघे रुपशमो भवति तथा कुर्वति परिचारकाः । अमी पुनर्यतयः षड्जीव निकायबाधापरिहारोद्यताः स्वसंयम विनाशभीरवो । 'जायणेण लद्ध हि' इत्यनेन द्रव्यसंपदभाव आख्यायते || १६०७॥
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मोक्खाभिलासिणो संजदस्स णिधणगमणं पि होदि वरं । णय वेदणामित्तं अप्पासुगसेवणं काढुं ।। १६०८।।
गा० - जब पुरुषके पापकर्मका उदय होता है तो अच्छी तरहसे प्रयुक्त और अतिशक्तिशाली भी औषधियाँ वेदनाको शान्त नहीं करतीं ॥। १६०५ ||
गा० - टी० - राजा आदि कुटुम्बी जिनके पास अनेक प्रकारकी धन-सम्पदा और सेवा करनेवाले दास-दासियोंकी प्रचुरता होती है, किन्तु जो दयाहीन होकर असंयमी जीवन बिताते हैं, उनकी वेदनाको शान्त करनेके लिये धन्वन्तरि भी समर्थ नहीं है । धन्वन्तरिपदसे वैद्यरूपी सम्पदाको सूचित किया है । अर्थात् धन्वन्तरि जैसा वैद्य भी उनकी वेदनाको दूर नहीं कर सकता ॥१६०६ ॥
गा० - टी० - तब जीवमात्रपर दया करनेवाले याचनासे प्राप्त प्रासुक द्रव्योंसे साधुकी वेदनाका उपशम कहाँ तक कर सकते हैं ? अर्थात् परिचारक साधु जहाँ तक शक्य होता है व्याधिको शान्त करनेका प्रयत्न करते हैं क्योंकि उनके पास परिचारक रूप सम्पदा - दासदासी तो हैं नहीं और यतिगण छह कायके जीवोंको बाधा न पहुँचे इसके लिये सदा तत्पर रहते हैं तथा अपने संयम विनाशसे भी भयभीत रहते हैं। साथ 'याचनासे प्राप्त' कहने से उनके पास धनसम्पदाका भी अभाव कहा है ।। १६०७॥
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