________________
विजयोदया टीका
६८७ - 'अप्पोवि तओ अल्पमपि तपः महाकल्याणं फलति सुसंयमनिष्पन्न । सुष्ठ प्रयुज्यते प्रवर्त्यतेऽनेनेति च विग्रह संयमः सुप्रयोगशब्देनोच्यते । यथा अल्पमपि वटबीजं फलति वटमनेकप्ररोहं अल्पमपि पृथुलं फलदायितपः इत्येतदाख्यातमनया ॥१४५४।।
सुट्ठु कदाण वि सस्सादीणं विग्घा हवंति अदिबहुगा ।
सुट्? कदस्स तवस्स पुण णत्थि कोइ वि जए विग्यो ।।१४५५।। 'सुलु कदाण वि' सम्यक् कृतानामपि शस्यादीनां अतीव विघ्ना भवन्ति । तपसः पुनः सम्यक् कृतस्य जगति न कश्चिद् विघ्नः फलदाने । निर्विघ्नफलदायित्वं तपसो माहात्म्यं कथितम् अनया ॥१४५५॥
जणणमरणादिरोगादुरस्स सुतवो वरोसधं होदि ।
रोगादुरस्स अदिविरियमोसघं सुप्पउत्त वा ॥१४५६।। 'जणणमरणादिरोगादुरस्स' जन्ममरणाद्यापीडितस्य सुतपो वरौषधं भवति । रोगपीडितस्य सुप्रयुक्तमतिवीर्यमौषधमिव । जननमरणादीनां विनाशकत्वं तत्कारणकर्मविनाशादनेनाख्यायते ॥१४५६।।
संसारमहाडाहेण डज्झमाणस्स होइ सीयधरं । .
सुतवोदाहेण जहा सीयधरं डज्झमाणस्स ॥१४५७।। 'संसारमहाडाहेण' संसारमहादाघेन दह्यमानस्स तपो भवति जलगृहं । यथा दह्यमानस्य सूर्यांशुभिर्घारागृहम् । सांसारिकदुःखनिमूलनकारिता तपसोऽनेन सूच्यते ।।१४५७॥
णीयल्लओ व सुतवेण होइ लोगस्म सुप्पिओ पुरिसो।
मायाव होइ विस्ससणिज्जो सतवेण लोगस्स ।।१४५८॥ गा०-टी०-सम्यक् संयमपूर्वक किया गया थोड़ा भी तप बहुत कल्याणकारी होता है । गाथामें सुप्रयोग शब्दसे 'जिसके द्वारा सुष्ठुरूप प्रवर्तित होता है' इस विग्रहके अनुसार संयम लिया गया है। जैसे छोटा-सा भी वटबीज अनेक शाखा प्रशाखासे पूर्ण वटवृक्षरूपसे फलता है उसी प्रकार थोड़ा भो तप बहुत फल देता है। यह इस गाथाके द्वारा कहा है ।।१४५४।।
___ गा०-धान्य आदिकी खेती बहुत सावधानतासे परिश्रमपूर्वक करनेपर भी उसमें बहुत विघ्न आते हैं। किन्तु सम्यक्रूपसे किये गये तपके फल देने में कोई विघ्न नहीं आता। निर्विघ्न फल देना तपका माहात्म्य है यह इस गाथाके द्वारा कहा है ॥१४५५।।
गा०-टी०-जैसे रोगसे पीड़ित पुरुषके लिए यत्नपूर्वक दी गई अति शक्तिशाली औषध होती है। उसी प्रकार जन्ममरण आदि रोगसे पीड़ितकी श्रेष्ठ औषध तप है। तप करनेसे जन्ममरणके कारण कर्मोंका विनाश होता है । इससे तपको जन्ममरण आदिका विनाशक कहा है ।।१४५६।।
गा०-संसाररूपी महादाहसे जलते हुए प्राणीके लिए तप जलघर है, जैसे सूर्यको किरणोंसे जलते हुए मनुष्यके लिए धाराघर होता है। तप सांसारिक दुःखोंको निमूल करता है, यह इससे सूचित किया है ।।१४५७।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org