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विजयोदया टीका ण हु सो कडुवं फरुसं व भणिदव्यो ण खीसिदव्वो य ।
ण य वित्तासेदव्वो ण य वट्टदि हीलणं कादु ॥१५०६॥ - 'ण हु सो कडुगं' स एवं कुर्वन्क्षपकः न कर्तव्यः कटुकं परुष वा, न भर्त्सनीयं, न च त्रासं नेतन्यः, न च युक्तः परिभवः कर्तुं तस्य ॥१५०६॥ परुषवचनादिभिः को दोषो जायते इत्यत्रोच्यते
फरुसवयणादिगेहिं दु माणी 'विप्फुरिओ तओ संतो।
उद्धाणमवक्कमणं कुज्जा असमाधिकरणं वा ॥१५०७।। 'परुषवचणादिहि' परुषवचनादिभिर्मानी विराधितः सन् ॥१५०७।।
तस्स पदिण्णामेरं भित्तुं इच्छंतयस्स णिज्जवओ।
सव्वायरेण कवयं परीसहणिवारणं कुज्जा ॥१५०८॥ 'तस्स पदिण्णामेरं' तस्य स्वप्रतिज्ञाव्यवस्थां भेत्तुं वाञ्छतो निर्यापकः सूरिः कवचं कुर्यात् परीषहनिवारणक्षमं ॥१५०८॥
णिद्धं मधुरं पल्हादणिज्ज हिदयंगमं अतुरिदं वा ।
तो सीहावेदव्वो सो खवओ पण्णवंतेण ॥१५०९॥ 'णिद्धं' स्नेहसहितं, 'मधुरं' श्रोत्रप्रियं, हृदयसुखविधायि, हृदयप्रवेशि, · अत्वरितं असो शिक्षयितव्यः क्षपकः प्रज्ञापयता ॥१५०९॥
रोगादंके सुविहिद विउलं वा वेदणं धिदिवलेण । तमदीणमसंमूढो जिण पच्चूहे चरित्तस्स ॥१५१०॥
बोलना उचित नहीं है, न उसका तिरस्कार करना चाहिये, न उसका हास्य करना चाहिये, न उसे त्रास देना चाहिये और न उसका अनादर करना चाहिये ।।१५०५-१५०६॥
उसके प्रति कठोर वचन बोलने आदिसे क्या हानि होती है यह कहते हैं
गा०-कठोर वचन आदिसे भड़ककर वह अभिमानी क्षपक संयमसे च्युत हो सकता है या दुर्ध्यानमें लग सकता है अथवा सम्यक्त्वको त्याग सकता है ॥१५०७॥
गा०-यदि वह अपनी प्रतिज्ञारूपी मर्यादाको तोड़ना चाहे तो निर्यापकाचार्य उसकी रक्षाके लिये ऐसा कवच आदरपूर्वक करे जो परीषहोंका निवारण कर सके ।।१५०८||
. गा०-आचार्यको स्नेहसहित, कानोंको प्रिय, हृदयमें सुख देनेवाले तथा हृदयमें प्रवेश करने वाले वचनोंसे क्षपकको धीरे-धीरे सम्बोधना चाहिये ।।१५०९॥
गा-हे सुन्दर आचार वाले ! तुम दीनता और मूढताको त्यागकर चारित्रमें बाधा डालनेवाली छोटी या बड़ी व्याधियोंको, महती वेदनाको धैर्यरूपी बलसे जीतो । राग और कोपका
१. विप्फुरिसिदो-विराधितः -मुलारा० ।
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