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भगवती आराधना
जो पुण एवं ण करिज्ज सारणं तस्स 'वियलचक्खुस्स । सो तेण होइ घिसेण खवओ परिचत्तो || १५०२ ||
'जो पुण एवं ण करिज्ज' यः पुनरेवं न कुर्यात् सारणं । स्खलितचित्तवृत्तेः स क्षपकस्तेन परित्यक्तो भवति सूरिणा ।। १५०२ ॥
एवं सारिज्जतो कोई कम्मुवसमेण लभदि सदि ।
तह य ण लब्भिज्ज सदि कोई कम्मे उदिष्णम्मि || १५०३ ||
' एवं सारिज्जन्तो' एवं सार्यमाणः कश्चित् चारित्रमोहोपशमेन असद्योपशमेन वा स्मृति योग्यायोग्यविषयां लभते । अयुक्तेयं इच्छा मम अकाले भोक्तुं पातुं वा प्रत्याख्यातं कथं कालेऽपि प्रार्थयामीति सार्यमाणोऽपि । लभते स्मृति कश्चित्कर्मण्युदीर्णे नो इन्द्रियमतिज्ञानावरणे । सारणा ।।१५०३।।
सदिमलभं तस्स वि कादव्वं पडिकम्ममट्ठियं गणिणा ।
सो विसया से अणुलोमो होदि कायव्वो ।। १५०४ ||
'सदिमलभंतस्स वि' स्मृतिमलभमानस्यापि गणिनाऽस्थितं कर्तव्यं । प्रतिकारः, उपदेशोऽपि अनुकूलः सदा तस्य कर्तव्यः ॥ १५०४ ॥
चेयंतो पिय कम्मोदयेण कोई परीसहपरद्धो ।
उब्भासेज्ज व उक्कावेज्ज व भिंदेज्ज आउरो पदिण्णं ।। १५०५ ||
'चेदंतो पि' चेतयमानोऽपि कर्मोदयेन कश्चित्परीषहपराजितो यत्किञ्चिद्वदेत् आरटेत्, भिन्द्याद्वा स्वां प्रत्याख्यानप्रतिज्ञां ॥१५०५॥
गा० - यदि आचार्य उस चलायमान चित्तवाले क्षपकको इस प्रकारसे स्मरण नहीं करावे तो समझना चाहिये उस निर्दयीने उस क्षपकको त्याग दिया है || १५०२ ॥
गा०-- इस प्रकार स्मरण दिलाने पर कोई-कोई क्षपक चारित्र मोह अथवा असातावेदनीय का उपशम होने से योग्य अयोग्यके विचारविषयक स्मृतिको प्राप्त होते हैं कि अकालमें खाने पीने की इच्छा करना मेरे लिये योग्य नहीं है । जो मैं त्याग कर चुका उसे कालमें भी कैसे ग्रहण करू ? आदि । किन्तु कोई नोइन्द्रिय मतिज्ञानावरण कर्मकी उदीरणा होनेपर स्मृति प्राप्त नहीं करते || १५०३ ||
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गा० - स्मृतिको जो प्राप्त नहीं होता, उसके प्रति भी आचार्यको निरन्तर प्रतिकार करते रहना चाहिये । तथा उसके अनुकूल उपदेश भी करते रहना चाहिये || १५०४ ||
गा०
- कोई क्षपक चेतनाको प्राप्त करके भी कर्मके उदयसे परीषहोंसे हारकर यदि अयोग्य बचन बोले, या रुदन करे या अपनी व्रत प्रतिज्ञाको भंग करे तो भी उसके प्रति कटुक वचन
१. विप्पलक्खस्स ( स्खलितचित्तवृत्तेः) । - मूलारा० ।
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