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विजयोदया टीका णिरयतिरिक्खगदीसु य माणुसदेवत्तणे य संतेण ।
जं पत्तं इह दुक्खं तं अणुचिंतेहि तच्चित्तो ।।१५५६।। 'णिरयतिरिक्खगदीसु य' नरकतिर्यग्गतिषु च । 'माणुसदेवत्तणे य संतेण' मानुषत्वदेवत्वयोश्च सता यत्प्राप्तं इह सुखानन्तरं दुःखं 'तं अणुचितेहि' तद्गतचित्तस्तदनुचिन्तय ।।१५५६॥
णिरएसु वेदणाओ अणोवमाओ असादबहुलाओ।
कायणि मित्तं पत्तो अणंतखुत्तो व बहुविधाओ ॥१५५७॥ 'णिरएसु' नरकेषु । 'वेदणाओ' वेदनाः । 'अणोवमाओ' अनुपमाः । तादृश्या वेदनाया जगत्यन्यस्या अभावात् । 'असादबहुलाओं' असद्वेद्यकर्मबहुलाः । कारणबहुलत्वेन कार्यानुपरतिराख्याता । 'कायणिमित्तं पत्तो' शरीरनिमित्तासंयमाजितकर्मनिमित्तत्वान्मलकारणं निर्दिष्टं कायनिमित्तमिति । 'अणंतसो''अणंतवारं। 'तं' भवान् ‘बहुविधाओ' बहुविधाः ॥१५५७॥ । उष्णनरकेषु उष्णमहत्तासूचनार्थोत्तरा गाथा
जदि कोइ मेरुमत्तं लो हुण्डं पक्खिविज्ज णिरयम्मि ।
उण्हे भूमिमपत्तो णिमिसेण विलिज्ज सो तत्थ ॥१५५८॥ "णिरयम्मि उण्हं लोहुण्डं मेरुमत्तं जदि कोइ पक्खिवेज्ज' उष्णनरके लोहपिण्डं मेरुसमानं यदि कश्चिद्देवो दानवो वा प्रक्षिपेत् । 'सो तत्थ भूमिमपत्तो चैव विलिज्ज' ३ लोहपिण्डो भूमिमप्राप्त एव द्रवतामुपयाति । 'उण्हेण' उष्णेन नरकबिलानां ॥१५५८॥
गा०-नरकगति, तिर्यञ्चगतिमें और मनुष्य पर्याय तथा देवपर्यायमें रहते हुए तुमने जो दुःख सुख भोगा, उसमें मन लगाकर उसका विचार करो ॥१५५६।।
___ गा०-टी०-इस शरीरके निमित्त किये गये असंयमसे उपार्जित कर्मके निमित्तसे तुमने नरकोंमें अनन्तवार नाना प्रकारकी तीव्र वेदना असातावेदनीय कर्मके तीव्र उदयमें भोगी हैं। इस प्रकारकी वेदना जगत्में दूसरी नहीं है। उसका मूल कारण यह शरीर है। उसीके निमित्तसे होनेवाले असंयमके कारण असातावेदनीयका तीव्रबन्ध होकर वह नरक में प्रचुरतासे उदयमें आता रहता है। अतः कारणकी बहुलता होनेसे वेदना रूप कार्य निरन्तर हुआ करता है ।।१५५७॥
आगेकी गाथासे उष्ण नरकोंमें उष्णताको महत्ता बतलाते हैं
गा. यदि कोई देव या दानव मेरुके समान लोहेके पिण्डको उष्ण नरकमें फेंके तो वह लोहपिण्ड वहाँकी भूमिको प्राप्त होनेसे ही पहले मार्गमें ही नरकविलोंकी उष्णतासे पिघल जाये ॥१५५८॥
१-२. लोहपिण्डं आ० । ३. विलाइज्ज -अ० आ० ।
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