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भगवती आराधना 'गोडे पाओवगदो सुबंधुणा गोच्चरे पलिवदम्मि । उज्झंतो चाणको पडिवण्णो उत्तमं अटुं ॥१५५१।। वसदीए पलविदाए रिट्ठामच्चेण उसहसेणो वि ।
अराधणं पवण्णो सह परिसाए कुणालम्मि ।।१५५२॥ 'धसदीए पलविदाए' वसती दग्धायां । रिट्ठामच्चनामधेयेन वृषभसेनः सह मुनिपरिषदा प्रतिपन्न आराधनाम् ॥१५५१-१५५२।।
जदिदा एवं एदे अणगारा तिव्ववेदणट्टा वि ।
एयागी अपडियम्मा पडिवण्णा उत्तमं अटुं ॥१५५३।। 'जदिदा' एवं यदि एदे तावदेवमेते 'अणगारा' यतयस्तीव्रवेदनापीडिता अपि एकाकिनोऽप्रतीकारा उत्तमार्थ प्रतिपन्नाः ॥१५५३॥
किं पुण अणयारसहायगेण कीरयंत पडिकम्मो ।
संघे ओलग्गंते आराधेदु ण सक्केज्ज ॥१५५४॥ "कि पुण अणगारसहायगेण' किं पुनर्न शक्यते आराधयितुं अनगारसहायेन भवता क्रियमाणे प्रतिकारे संघे चोपासनां कुर्वति सति ।।१५५४॥
जिणवयणममिदभूदं महुरं कण्णाहुदिं सुणंतेण ।
सक्का हु संघमज्जे साहेदु उत्तमं अटुं ।।१५५५।। 'जिणवयण' जिनानां वचनं । अमृतभूतं, मधुरं कर्णाहुति शृण्वता त्वया संघमध्ये शक्यमाराधयितुं ॥१५५५।।
गा०-चाणक्य मुनि गोकुलमें प्रायोपगमन संन्यासमें स्थित थे। सुबन्धु नामक मंत्रीने कण्डोंके ढेरमें आग लगा दी। उसमें जलकर चाणक्य मुनि उत्तम अर्थको प्राप्त हुए ॥१५५१।।
गा०---कुणालपुरीमें रिष्ट नामक मंत्रीके द्वारा वसतिकामें आग लगानेपर वृषभसेन मुनि अपने शिष्य परिवारके साथ आराधनाको प्राप्त हुए ।।१५५२॥
गा०-इस प्रकार यदि ये मुनि अकेले प्रतीकार किये बिना तीव्र वेदनासे पीड़ित होकर उत्तमार्थको प्राप्त हुए ॥१५५३।।
गा०–तो तुम्हारी सहायताके लिये तो मुनि समुदाय है वह तुम्हारे कष्टका इलाज करता है, तुम्हारे साथ उपासना करता है तब तुम आराधना क्यों नहीं कर सकते ॥१५५४||
गा०-अमृतके समान मधुर जिन-वचन तुम्हारे कानोंमें जाता है। उसे सुनते हुए संघके मध्यमें तुम्हारे लिये आराधना करना सरल है ॥१५५५।।
१. एतां टीकाकारो नेच्छति । २. कीरंतयम्मि पडिकम्मे -आ० म०।
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