________________
विजयोदया टीका
६९७ उब्भासेज्ज व गुणसेढीदो उदरणबुद्धिओ खवओ ।
छटुं दोच्चं पढमं व सिया कुंटिलिदपदमिछंतो ॥१४९८।। 'उब्भासेज्ज' पदेद्वायोग्यं, संयमगुणश्रेणितः कृतावतरणबुद्धिः 'छ8' रात्रिभोजनं, 'दोच्चं' पाणं, दिवसे 'पढमं व' अशनं वा । 'सिया' कदाचित् । 'कुंटिलिदपदमिच्छंतो' स्खलनपदं इच्छन् ।।१४९८।।
तह मुझंतो खवगो सारेदव्वो य सो तओ गणिणा ।
जह सो विसुद्धलेस्सो पच्चागदचेदणो होज्ज ॥१४९९।। 'तह मुझंतो खवगो' मोहमुपगच्छन् क्षपकस्तथा सारयितव्योऽसौ तेन गणिना । कथं ? यथा विशुद्धलेश्यो भवति प्रत्यागतचेतनश्च ॥१४९९।। सारणोपायं कथयति
कोसि तुमं किं णामो कत्थ वससि को व संपही कालो ।
किं कुणसि तुमं कह वा अत्थसि किं णामगो वाहं ।।१५००॥ 'कोऽसि तुम' कस्त्वं ? किनामधेयः ? 'कत्थ वससि क्व वससि ? 'को व संपही कालो' को वेदानीं काल: ? किमयं दिवा रात्रि ? "किं कुणसि तुम' किं करोषि भवान् ? 'कथं वा अत्थसि' कथं वा तिष्ठसि ? 'कि णामगो वाह' अहं वा किनामधेयः ? ॥१५००॥
एवं आउच्छित्ता परिक्खहेदु गणी तयं खवयं ।
सारइ वच्छलयाए तस्स य कवयं करिस्संति ॥१५०१।। 'एवं आउच्छित्ता' एवमनुपरतं सारयति गणो तं क्षपकं । कि सचेतनो निश्चेतन इति परीक्षितुकामः वत्सलतया । यद्यस्ति चेतना कवचं करिष्यामीति मत्वा ।।१५०१॥
गा०-अयोग्य वचन कहे, या संयमगुणकी सीढ़ीसे नीचे उतरना चाहे, या निचले स्थानको चाहते हुए रात्रि भोजन या रात्रिमें पानक लेना चाहे या दिनमें असमयमें भोजन करना चाहे ॥१४९८॥
गा०-इस प्रकार जब क्षपक मोहमें पड़ जाये तो आचार्यको उसे सब पिछली बातोंका स्मरण कराना चाहिये। जिससे उसके परिणाम विशुद्ध हों और उसका यथार्थ ज्ञान लौट आवे ॥१४९९॥
उसके उपाय कहते हैं
गा-तुम कौन हो ? तुम्हारा क्या नाम है ? कहाँ रहते हो? इस समय दिन है या रात है ? तुम क्या करते हो ? कहाँ बैठे हो ? मेरा क्या नाम है ॥१५०० ॥
गा०-इस प्रकार आचार्य उसकी परीक्षाके लिये कि यह सचेत अवस्थामें है या अचेत अवस्थामें है, वात्सल्य भावसे बार-बार उसे स्मरण कराते हैं। उनकी यह भावना रहती है कि यदि यह सचेत है तो उसके संयमकी रक्षा की जाये ॥१५०१॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org