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भगवती आराधना बच्छीहिं अवद्दवणतावणेहिं आलेवसीदकिरियाहि ।
अब्भंगणपरिमद्दण आदीहिं तिगिंछदे खवयं ॥१४९४॥ 'वच्छोहि' बस्तिकर्मभिः, अवद्दवणतावणेहि' ऊष्मकरणतापनः, आलेपनेन, शीतक्रियया, अभ्यङ्गपरिमर्दनादिभिश्च चिकित्सते क्षपकं ॥१४९४।।
एवं पि कीरमाणो परियम्मे वेदणा उवसमो सो ।
खवयस्स पावकम्पोदएण तिव्वेण हु ण होज्ज ॥१४९५।। एवं पि कीरमाणे प्रतीकारे क्षपकस्य वेदनोपशमः तीव्रण पापकर्मोदयेन' नापि भवेदपि, नहि बहिर्द्रव्यमाहात्म्येनैव कर्माणि स्वफलं न प्रयच्छन्ति । तदेव हि बहिर्द्रव्यं एकस्य वेदनां प्रशमयति नापरस्येति प्रतीततरमेतद् ॥१४९५॥
अहवा तण्हादिपरीसहेहिं खवओ हविज्ज अभिभदो।
उवसग्गेहिं व खवओ अचेदणो होज्ज अभिभूदो ॥१४९६।। 'भहवा तण्हादिपरीसहेहि' अथवा तृडादिभिः परीषहरभिभूतो भवेत्क्षपकः, उपसगर्वाभिभूतो निश्चेतनः स्यात् ॥१४९६॥
तो वेदणावसट्टो वाउलिदो वा परीसहादीहिं ।
खवओ अणप्पवसिओ सो विप्पलवेज्ज जं किं पि ॥१४९७॥ 'तो वेदणावसट्टो' ततो वेदनावशा” व्याकुलितः परीषहोपसर्गः क्षपकोऽसावनात्मवशो विप्रलपेद्यदि किञ्चित् ॥१४९७॥
गा०-वस्तिकर्म ( एनिमा ) गर्म लोहेसे दागना, पसीना लाना, लेप लगाना, प्रासुक जलका सेवन कराना, मालिश, अंगमर्दन आदिके द्वारा क्षपककी वेदना दूर करना चाहिये ।१४९४/
गा०-इस प्रकार प्रतीकार करने पर भी तीव्र पाप कर्मके उदयसे यदि क्षपककी वेदना शान्त न हो । क्योंकि केवल 'बाह्य' द्रव्यके प्रभावसे ही कर्म अपना फल न दें, ऐसी बात नहीं है। वही बाह्य द्रव्य एककी वेदना शान्त करता है दूसरेकी नहीं करता। यह तो अनुभवसिद्ध है ॥१४९५॥
गा०—अथवा क्षपक प्यास आदिकी वेदनासे अभिभूत हो जाय या उपसर्गोंसे पीड़ित होकर मूछित्त हो जाये ॥१४९६॥
___गा०--या वेदनासे पीड़ित और परीषह उपसर्गोसे व्याकुल होकर क्षपक अपने वशमें न रहे और जो कुछ भी बकने लगे ॥१४९७||
१. येन धन वेदनापि नहि -अ० ।
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