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भगवती आराधना
सारणेत्येतत्सूत्रपदव्याख्यानमुत्तरम् -
अकडुगमतित्तयमणंविलंच अकसायमलवणममधुरं । अविरस' मदुरभिगंधं अच्छमणुण्हं अणदिसीदं ॥ १४८५ ।।
'अकडुगं' अकटुकं, अतिक्तं, अनाम्लं, अकषायं, अलवणं, अमधुरं, अविरसं अदुरभिगंधं, स्वच्छमनुष्णशीतं ॥ १४८५ ॥
पाणगमसिभलं परिपूयं खीणस्स तस्स दादव्वं ।
जह वा पच्छं खवयस्स तस्स तह होइ दायव्वं ॥ १४८६ ।।
'पाणगर्मासभलं' पानकमश्लेष्मकारि परिपूतं क्षीणाय क्षपकाय दातव्यं । यथाभूतं वा क्षपकस्य तस्य पथ्यं तथाभूतं दातव्यम् ॥ १४८६ ॥
संथारत्थो खवओ जड़या खीणो हवेज्ज तो तया । वोसरिदव्वोपुव्वविधिणेव सोपाणगाहारो || १४८७॥
'संथारत्थो' - संस्तरस्थः क्षपको यदा क्षीणो भवेत्तदा व्युत्सृष्टव्योऽसौ पानकविकल्पः पूर्व विधिनैव ।। १४८७ ।।
एवं संथारगदस्स तस्स कम्मोदएण खवयस्स ।
अंगे कथ उज्ज वेयणा ज्झाणविग्धयरी || १४८८ ।।
'एवं संथारगदस्स' एवं संस्तरगतस्य क्षपकस्य कर्मोदयेन ववचिदुद्वेदनोपजायते ध्यानविघ्नकारिणी ।। १४८८॥
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अब पूर्व गाथा में आगत 'सारण' पदका व्याख्यान करते हैं
गा० - टी० - क्षपकको दिया जानेवाला पानक कटुक, चरपरा, खट्टा, कसैला, नमकवाला, मीठा स्वादयुक्त और दुर्गन्ध युक्त नहीं होना चाहिये अर्थात् वह न कटुक हो, न चरपरा हो, न खट्टा हो, न कसैला हो, न नमकसे युक्त हो, न मीठा हो, तथा स्वादहीन और दुर्गन्धयुक्त भी न हो । स्वच्छ हो, न गर्म हो और न ठंडा हो || १४८५ ||
गा०- कफ पैदा करने वाला न हो। कपड़े से छान लिया गया हो। इस प्रकार कमजोर क्षपकको ऐसा पेय देना चाहिये जो उसके लिये पथ्य हो, अर्थात् समाधिमें विघ्न डालने वाला न हो ॥ १४८६ ॥
गा०-- जब संस्तरारूढ़ क्षपक अतिक्षीण हो जाये तब पूर्वविधिसे पानकका त्याग करा देना चाहिये || १४८७
गा० - इस प्रकार संस्तरारूढ़ क्षपकके कर्मके उदयसे किसी अंग में ध्यानमें विघ्न डालने वाली वेदना यदि उत्पन्न हो जाये || १४८८ |
१. मदुव्विगन्धं मु०, मूलारा० ।
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