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विजयोदया टीका
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'विसयमहापंकाउलगड्डाए' विषयो महापंकाकुलगत इव दुस्तरत्वात् । तस्मिन् संक्रमो भवति । तदुत्तरणहेतुर्भवति तपः। तपो नौरुल्लंघयितु कषायातिचपलनदीं ॥१४६२।।
फलिहो व दुग्गदीणं अणेयदुक्खावहाण होइ तवो ।
आमिसतण्हाछेदणसमत्थमुदकं व होइ तवो ॥१४६३।। 'फलिहो व दुग्गदीणं' दुर्गतीनां परिघ इव । कीदृशां दुर्गतीनां ? अनेकदुःखावहांनां । किं च विषयतृष्णाच्छेदनसमर्थ च तपः उदकमिव तृष्णाच्छेदने ॥१४६३।।
मणदेहदुक्खवित्तासिदाण सरणं गदी य होइ तवो।
होइ य तवो सुतित्थं सव्वासुहदोसमलहरणं ॥१४६४॥ _ 'मणदेहदुक्खवित्तासिदाण' मानसानां शरीराणां दुःखानां ये वित्रस्तास्तेषां शरणं गतिश्च तपः । भवति च तपस्तीथं सर्वाशुभदोषमलनिरासकारि ॥१४६४।।
संसारविसमदुग्गे तवो पणट्ठस्स देसओ होदि ।
होइ तवो पच्छयणं भवकंतारम्मि दिग्धम्मि ॥१४६५॥ 'संसारविसमदुग्गे' संसारो विषमदुर्ग इव दुरुत्तरणीयत्वात् । तस्मिन्प्रणष्टस्य दिङ्मूढस्य । 'तवों देसगो होदि' तप उपदेष्टा भवति । संसारविषमदुर्गमुत्तारयतीति । 'होवि तवो पच्छदणं' भवति तपः पथ्यदनं 'भवकांतारम्मि' भवाटव्यां । 'विग्धम्मि' दीर्धे ।।१४६५।। ,
रक्खा भएसु सुतवो अब्भुदयाणं च आगरो सुतवो।
णिस्सेणी होइ तवो अक्खयसोक्खस्स मोक्खस्स ॥१४६६॥ 'रक्सा भएसु सुतवो' भयेषु रक्षा सुतपः । अभ्युदयानां वाकरः सुतपः मोक्षस्य अक्षयसुखस्य निश्रयणी भवति तपः ॥१४६६।।
है। तप उससे निकलने में कारण है। तथा तप कषायरूप अति चपल नदीको पार करनेके लिए नौका है ।।१४६२।।
गा०-अनेक दुःखदायी दुर्गतियोंके लिए तप अर्गलाके समान है। तथा विषयोंकी तृष्णाको नष्ट करनेके लिए जलके समान है। जैसे जलसे प्यास बुझ जाती है वैसे ही तपसे विषयोंकी प्यास बुझ जाती है ।।१४६३॥
गा०-जो मानसिक और शारीरिक दुःखोंसे पीड़ित हैं उनके लिए तप शरण और गति है । तप सर्व अशुभ दोषरूप मलको दूर करनेवाला तीर्थ है ॥१४६४॥
गाo-यह संसार विषम दुर्गके समान है क्योंकि उससे निकलना कठिन है। उस संसाररूपी दुर्गमें जो दिशा भूल गये हैं उनके लिए तप उपदेशक है अर्थात् संसाररूपी विषम दुर्गसे निकलनेका मार्ग बतलाकर उससे निकालता है। तथा सुदीर्घ भवरूपी भयानक वनमें कलेवाके समान सहायक है ।।१४६५||
गा०–सम्यक तप भयमें रक्षा करता है, अभ्युदयोंकी खान है और अविनाशी सुखस्वरूप मोक्षमें जानेके लिए नसैनी है ।।१४६६||
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