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भगवती आराधना
प्रीतिभयशोकानां अशुभ परिणामत्वात्कर्मास्रव निमित्तता । निद्राया वा अविशिष्टत्वात् कथं संवरार्थिनो निरूप्यते प्रीत्यादिकं इत्याशङ्कायां संवरहेतुभूततया तद्व्यपदेशं प्रति नियतविषयमुपदर्शयति
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भयमागच्छसु संसारादो पीदिं च उत्तमट्ठम्मि |
सोगं च पुरादुच्चरिदादो णिद्दाविजयहेदुं ॥ १४३७॥
'भयमागच्छसु' भयं प्रतिपद्यस्व । 'संसारादो' संसारात् पञ्चविधपरावर्तनरूपात् । प्रीतिं रत्नत्रयाराधनायां । शोकं उपैहि पूर्वकृतादुश्चरितात् निद्रां विजेतुं । नरकादिगतिष्वसकृत्परिवर्तमानेन शारीरमागन्तुकं, मानसं स्वाभाविकं च दुःखं विचित्रमनुभूतं तत्पुनरप्यायास्यति इति मनः प्राणिधेहि । सकलामापत्संहतिमुन्मूलयितुं, अभ्युदयनिश्रेयससुखानि च प्रापयितुं, असारशरीभारमपनेतु अनन्तावबोधदर्शनसाम्राज्यश्रियमाक्रष्टु ं कर्मविषविटपानुत्पाटयितुं क्षमामिमां अनन्तेषु भवेषु अनवाप्तपूर्वी रत्नत्रयाराधनां कर्तुं उद्यतोऽस्मीति प्रीतिर्भावनीया । हिसानृतस्ते या ब्रह्मपरिग्रहेषु मिथ्यात्वकषायेष्वशुभमनोवाक्काययोगेषु विचित्रकर्मार्जनमूलेषु चतुर्विधबन्धपर्यायनिमित्तेषु अनारतं मन्दभाग्यः प्रवृत्तोऽस्मि हिताहितविचारणाविमुग्धबुद्धितया सन्मार्गस्योपदेष्ट्रदृणामनुपलम्भात्प्रवरज्ञाना 'वरणोदयात्तदुदीरितार्थतत्त्वानवबोधात् । अवगमे सत्यप्यश्रद्धायां, चारित्रमोहोदयात्सन्मार्गेऽप्रवृत्तेश्च दुःखाम्भोधौ निमग्नोऽस्मीत्युद्विग्नचित्ततया च निद्रा प्रयाति ॥ १४३७॥
यहाँ शंका होती है कि प्रीति भय और शोक तो अशुभ परिणामरूप होनेसे कर्मोके आस्रवमें निमित्त होते हैं । अतः उनमें और निद्रामें कोई अन्तर नहीं है । तब जो संवरका इच्छुक है उसके लिए प्रीति आदि करनेको क्यों कहते हैं ? इसके उत्तर में संवरके हेतु जो प्रीति आदि हैं उनके प्रतिनियत विषयको बतलाते हैं
गा० - टी० - निद्राको जीतनेके लिये पाँच प्रकारके परावर्तन रूप संसारसे भय करो । रत्नत्रयकी आराधना में प्रीति करो और पूर्व में किये दुराचरणके लिये शोक करो । नरकादि गतियों में बार-बार आने जानेसे मैंने शारीरिक, आगन्तुक, मानसिक और स्वाभाविक अनेक प्रकारका दुःख भोगा । वही दुःख आगे भी भोगनेमें आवेंगे, ऐसा मनमें विचार करो । समस्त आपत्तियों के समूहका विनाश करनेके लिये, स्वर्ग और मोक्षके सुखोंको प्राप्त करनेके लिये, असार शरीरका भार उतारनेके लिये, अनन्त ज्ञान अनन्त दर्शन रूप साम्राज्य लक्ष्मीको आकर्षित करनेके लिये, स्वर्ग और मोक्षके सुखोंको प्राप्त करनेके लिये और कर्मरूपी विष वृक्षको उखाड़ने में समर्थ इस रत्नत्रय आराधनाको, जिसे पहले अनन्तभवों में कभी प्राप्त नहीं किया, करनेके लिये मैं तत्पर हूँ । इस प्रकार प्रीतिकी भावना करो । हिंसा झूठ चोरी अब्रह्म परिग्रह, मिथ्यात्व कषाय और अशुभ मनोयोग अशुभ वचन योग अशुभ काययोगमें, जो नाना प्रकारके कर्मोंके संचयके मूल हैं और चार प्रकारके बन्धमें निमित्त हैं, मैं अभागा निरन्तर लगा रहा, क्योंकि हित अहितके विचार में मूढ बुद्धि होनेसे तथा सन्मार्गका उपदेश देने वालोंकी प्राप्ति न होनेसे अथवा प्रबल ज्ञानावरणका उदय होनेसे उनके द्वारा कहे गये अर्थ तत्त्वको न जान सकनेसे, या जान लेने पर भी श्रद्धा न करनेसे और चारित्र मोहके उदयसे सन्मार्ग में प्रवृत्ति न करनेसे में दुःखके समुद्र में डूबा हूं । इस प्रकार चित्तके उद्विग्न होनेसे निद्रा चली जाती है ॥१४३७||
१. ज्ञानावरोधोदयात्तदुदीरितार्थान - अ० मु० |
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