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भगवती आराधनां
'डंभसदेह बहुगह' दम्भशतैर्बहुभिः सुप्रयुक्तैरपि अपुण्यस्य हस्तं नायात्यर्थ: । अन्यस्मात्स
पुण्यात् ।। १४२९ ॥
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इह य परत्तय लोए दोसे बहुए य आवहइ माया ।
इदि अपणो गणित्ता परिहरिदव्वा हवइ माया || १४३० ॥
'इह य परत य' इहपरलोकयोर्बहून्दोषानावहति माया । इति आत्मनि निरूप्य परिहर्तव्या भवति
माया ।। १४३० ॥
लोक वि अत्थो ण होइ पुरिसस्स अपडिभोगस्स ।
अकवि हवदि लोभे अत्थो पडिभोगवंतस्स || १४३१॥
'लोभे कदे' लोभे कृतेऽप्यर्थो न भवति पुरुषस्य अपुण्यस्य । अकृतेऽपि लोभेऽर्थो भवति पुण्यवतः । ततः अर्थासक्तिरर्थलाभे मम न निमित्तमपि तु पुण्यमित्यनया चिन्तया लोभो निराकार्यः ॥१४३१॥
अपि च ' अर्थप्राप्तये जनः प्रयतते अर्थाः पुनरसकृत्प्राप्तास्त्यक्ताश्च तेषु को विस्मय इति मनःप्रणिधानं कुरु लोभविजयायेति वदति
सव्वे वि जए अत्था परिगहिदा ते अनंतखुत्तो मे ।
अत्थेसु इत्थ को मज्झ विभओ गहिदविजडेसु || १४३२ ||
'सम्वे विजये अत्या' सर्वेऽपि जगत्यर्थाः परिगृहीता मयानन्तवारं ममार्थेष्वमीषु को विस्मयो गृहीतत्यक्तेषु ॥१४३२।।
इह य परत्तय लोए दोसे बहुए य आवहइ लोभो ।
इदि अपणो गणित्ता णिज्जेदव्वो हवदि लोभो ॥ १४३३ ॥ इंदियकसायत्तिगदं ॥ १४३३॥
गा० - माया इस लोक और परलोकमें बहुतसे दोष लाती है ऐसा जानकर मायाका त्याग करना चाहिए || १४३०॥
गा०—लोभ करनेपर भी पुण्यहीन पुरुषके पास धन नहीं होता, और लोभ नहीं करनेपर भी पुण्यशालीके पास धन होता है । अतः धनका लोभ धनलाभमें निमित्त नहीं है किन्तु पुण्य निमित्त है ऐसा विचारकर लोभको त्यागना चाहिए || १४३१||
अर्थ प्राप्ति के लिए मनुष्य प्रयत्न करता है । किन्तु अर्थ अनेक बार प्राप्त हुआ और छोड़ा है । उसमें आश्चर्य कैसा ? इस तरह लोभको जीतनेके लिए मनमें चिन्तन करो, यह कहते हैं
गा०—जगत् में जितने पदार्थ हैं वे सब मैंने अनन्तवार प्राप्त किये। उन ग्रहण किये और त्यागे हुए पदार्थोंमें आश्चर्य कैसा ? || १४३२||
गा० - लोभ इस भव और परभवमें बहुतसे दोष पैदा करता है ऐसा जानकर लोभको त्यागना चाहिए || १४३३॥
इस प्रकार इन्द्रिय और कषायोंका कथन किया ।
१. अप्राप्ताय - अ० ।
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