________________
विजयोदया टीका
६७९ इह य परत्तय जन्मद्वये दोषान् बहूनावहति मानमिति विगणय्य माननिग्रहं कुर्यात्साधुजनः ॥१४२५।। मायाप्रतिपक्षपरिणामस्वरूपं निगदति
अदिगूहिदा वि दोसा जणेण कालंतरेण णज्जति ।
मायाए पउत्ताए को इत्थ गुणो हवदि लद्धो ॥१४२६॥ 'अदिगूहिदा वि दोसा' अतीव संवृता अपि दोषा जनेन ज्ञायन्ते कालान्तरे मायया प्रयुक्तया को गुणो लब्ध इति चिन्तया निहन्ति ॥१४२६॥
परिभागम्मि असंते णियडिसहस्सेहिं गृहमाणस्स । चंदग्गहोव्व दोसो खणेण सो पायडो होइ ॥१४२७।। जणपायडो वि दोसो दोसोत्ति ण घेप्पए सभागस्स ।
जह समलत्ति ण धिप्पदि समलं पि जए तलायजलं ।।१४२८॥ 'जडपायडो वि दोसो' लोकप्रकटोऽपि दोषो दोष इति न गृह्यते भाग्यवतः । यथा समलमिति न गृह्यते लोके तटाकजलं समलमिति सदृशं । एतदुक्तं भवति पुण्यवतोऽपि मायया न किञ्चित्साध्यं । प्रकटेऽपि दोषे यतोऽसौ जगति मान्यः । दोषनिगृहनं हि मान्यताविनाशभयादिति भावः ॥१४२८॥ अथ मायां करोत्यर्थाथं तथापि सानथिकेति वदति
डंभसएहिं बहुगेहिं सुपउत्तेहिं अपडिभोगस्स ।
हत्थं ण एदि अत्थो अण्णादो सपडिभोगादो ॥१४२९।। गा०—इस लोक और परलोकमें मान बहुत दोषकारी है। ऐसा जानकर अपने मानका निग्रह करना चाहिए ॥१४२५।।
अब मायाके विरोधी परिणामोंका स्वरूप कहते हैं
गा०- अत्यन्त छिपाकर भी की गई बुराई कालान्तरमें मनुष्योंको ज्ञात हो जाती है। तब मायाचार करनेसे क्या लाभ है । इस प्रकारके चिन्तनसे मायाको दूर करना चाहिए ॥१४२६।।
गा०-भाग्य प्रतिकूल हो तो हजार छलसे छिपाया हुआ भी काम चन्द्रमाके ग्रहणकी तरह क्षणमात्रमें प्रकट हो जाता है ॥१४२७॥
गा०-टी०-और भाग्यशालीका लोकमें प्रकट भी दोष दोष नहीं माना जाता। जैसे तालाबका जल मैला हो तब भी लोग उसे मैला नहीं मानते । आशय यह है कि पुण्यशालीको मायासे कोई लाभ नहीं है क्योंकि दोष प्रकट होनेपर भी वह जगत्में मान्य रहता है। मान्यताके विनाशके भयसे ही मनुष्य दोषको छिपाता है ॥१४२८॥
आगे कहते हैं कि मनुष्य धनके लिए मायाचार करता है किन्तु वह ब्यर्थ है
गा०-अच्छी तरह सैकड़ों छलकपट करनेपर भी पुण्यहीनके हाथमें पुण्यशालीका धन नही आता ॥१४२९।।
१. परिभोगम्भि-ज० । एतां टीकाकारो नेच्छति ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org