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विजयोदया टीका
६८१ एवमिन्द्रियकषायपरिणामनिरोधोपायभूतान्परिणामानुपदिश्य निद्राजयक्रमं निरूपयति सूरिः
णि जिणाहि णिच्चं णिद्दा हु णरं अचेयणं कुणइ ।
वट्टिज्ज हु पासुत्तो खवओ सव्वेसु दोसेसु ॥१४३४।। 'णि जिणाहि' निद्रा जय नित्यं । अजिता सा किमपकारं करोति इत्याशय आह "णिद्दा हु णरं अचेयणं कुणाई' निद्रा नरं अचेतनं करोति । चैतन्यरहितावस्थाभावात्किमुच्यते करोतीति । अत्रोच्यते-विवेकज्ञानरहितत्वमेवात्राचेतनशब्देनोच्यते । यत एव योग्यायोग्यविवेकज्ञानरहित अत एव । 'वट्टिज्ज हु' वर्तते एव । 'पासुत्तो' प्रकर्षेण सुप्तः 'खवगो' क्षपकः । 'सन्वेसु दोसेसु' हिंसामैथुनपरिग्रहादिकेषु ।।१४३४।। निद्रा कर्मोदयवशाद्भवति कथं मयापाकर्तव्या इत्यत्राह
जदि अधिवाधिज्ज तुमं णिहा तो तं करेहि सज्झायं ।
सुहुमत्थे वा चिंतेहि सुणसु संवेगणिव्वेगं ॥१४३५।। 'जदि अधिवाधिज्ज तुम' यद्यधिबाधेत भवन्तं निद्रा। ततस्त्वं कुरु स्वाध्यायं । 'सुहुमत्थे वा चितेहि' सूक्ष्मान्वार्थान् चिन्तय । 'सुणसु संवेगणिवेगं' शृणुष्व संवेजनीं निर्वेजनी वा कथां ॥१४३५।। प्रकारान्तरं निद्राविजयहेतुं निगदति
पीदी भए य सोगे य तहा णिद्दा ण होइ मणुयाणं ।
एदाणि तुमं तिण्णिवि जागरणत्थं णिसेवेहिं ॥१४३६।। 'पोदी भए य सोगे' प्रीत्यां भये शोके च सति निद्रा मनुष्याणां न भवति । तेन प्रीत्यादिसेवां कुरु त्वं निद्राविजितये ॥१४३६।।
इस प्रकार इन्द्रिय और कषायरूप परिणामोंको रोकनेके उपायरूप परिणामोंको कहकर निद्राको जीतनेका क्रम कहते हैं
गा०-टी०-सदा निद्रापर विजय प्राप्त करो। नहीं जीतनेपर वह क्या बुराई करती है यह कहते हैं-निद्रा मनुष्यको अचेतन करती है।
____ शंका-चेतन मनुष्यको चैतन्यरहित अवस्था नहीं होती। तब कैसे कहते हैं कि निद्रा अचेतन करती है ?
समाधान-यहाँ अचेतन शब्दसे विवेकज्ञानसे रहित होना ही कहा है ।
इसलिए जो गहरी नींदमें सोया है वह क्षपक योग्य अयोग्यके विवेकज्ञानसे रहित होनेसे हिंसा मैथुन परिग्रह आदि सब दोषोंमें प्रवृत्ति करता है ।।१४३४।।
निद्रा कर्मके उदयसे होती है। उसे मैं कैसे दूर करूं ? इसका उत्तर आचार्य देते हैं
गा०-यदि तुम्हें निद्रा सताती है तो स्वाध्याय करो। या सूक्ष्म अर्थोंका विचार करो। अथवा संवेग और निर्वेदको करनेवाली कथा सुनो ।।१४३५।।
निद्राको जीतनेका अन्य उपाय कहते हैं
गा०-प्रीति, भय अथवा शोक होनेपर मनुष्योंको निद्रा नहीं आती। अतः तुम निद्राको जीतनेके लिए प्रीति आदिका सेवन करो ।।१४३६||
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