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विजयोदया टीका
६८३ जागरणत्थं इच्चेवमादिकं कुण कमं सदा उचो ।
झाणेण विणा वंज्झो कालो हु तुमे ण कायव्वो ॥१४३८॥ जागरणार्थ निद्रानिरासार्थ एवमादिकं कुरु क्रमं सदोपयुक्तं । ध्यानेन विना बन्ध्यः कालो न कर्तव्यस्त्वया ॥१४३८॥
संसाराडविणित्थरणमिच्छदो अणपणीय दोसाहिं ।
सोढुं ण खमो अहिमणपणीय सोदु व सघरम्मि ।।१४३९।। 'संसाराडविणिच्छरणमिच्छदो' संसाराटविनिस्तरणमिच्छन्ननपाकृत्य दोषान् न हि स्वप्तुं क्षमः । अहिं अनपनीय स्वप्तुमिव गृहे ॥१४३९॥
को णाम 'णिरुव्वेगो लोगे मरणादिअग्गिपज्जलिदे ।
पज्जलिदम्मि व णाणी घरम्मि सोदु अभिलसिज्ज ।।१४४०॥ . 'को णाम णिरुव्वेगों लोगे मरणादि अग्गिपज्जलिदे' जातिजरामरणव्याधयः, शोका भयानि, प्रार्थितालाभो, अभिमतवियोग इत्यादिनाग्निना प्रज्वलिते । 'णाणी सोदुमभिलसेज्ज' ज्ञानी स्वप्तुमभिलषेत् । 'पज्जलिदम्मि घरम्मि व' प्रज्वलिते गह इव ॥१४४०।।
को णाम णिरुव्वेगो सुविज्ज दोसेसु अणुवसंतेषु ।
गहिदाउहाण बहुयाण मज्झयोरेव सत्त णं ॥१४४१॥ 'को णाम णिरुग्वेगो' को नाम निरुद्वेगः स्वपेद्रागादिषु संसारप्रवर्द्धनेषु दोषेषु अनुपशान्तेषु गृहीतायुधानां शत्रूणां बहूनां मध्ये इव ॥१४४१॥ .
णिद्दा तमस्स सरिसो अण्णो णत्थि हु तमो मणुस्साणं ।
इदि णच्चा जिणसु तुमं णिद्दा ज्झाणस्स विग्घयरी ॥१४४२॥ गा०-निद्राको दूर करनेके लिये इस प्रकारके चिन्तनमें सदा लगे रहो। ध्यानके विना तुम्हें एक क्षण भी नहीं गंवाना चाहिए ।।१४३८||
गा०-जैसे घरमें यदि सर्प घुसा हो तो उसे निकाले विना सोना शक्य नहीं है। उसी प्रकार जो संसार रूपी महावनसे निकलना चाहता है वह दोषोंको दूर किये विना सोनेमें समर्थ नहीं होता ॥१४३९।।
गा-जलते हुए घरकी तरह लोकके जन्म, जरा, मरण, व्याधि, शोक, भय, प्रार्थितकी अप्राप्ति और इष्ट वियोग इत्यादि आगसे जलते रहने पर कौन ज्ञानी निर्भय होकर सोना चाहेगा ॥१४४०॥
गा-जैसे शस्त्रधारी बहुतसे शत्रुओंके मध्यमें कोई निर्भय होकर नहीं सो सकता, उसी प्रकार संसारको बढ़ानेवाले रागादि दोषोंके उपशान्त हुए विना कौन निर्भय होकर सो सकता है ।।१४४१॥
१. अणुविग्गो मूलारा० । २. प्रार्थितलोभो आ० ।
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