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विजयोदया टोका
६७७ रोसेण महाधम्मो णासिज्ज तणं च अग्गिणा सव्वो ।
पावं च करिज्ज महं बहुगंपि णरेण खमिदव्वं ॥१४१८॥ 'रोसेण महाधम्मो' दुरजनो दुर्लभो दुश्चरी धर्मोऽनुयायी रोषेण 'मदीयो नश्यति । अग्निना तृणमिव । तथा चाभ्यधायि
अज्ञानकाष्ठजनितस्त्ववमानवातेः संघुक्षितः परुषवाग्गुरुविस्फुलिंगः । हिंसाशिस्त्रोऽपि भशमुत्थितवैरधूमः क्रोधाग्निरुद्दहति धर्मवनं नराणाम् ॥ इति॥ [ ] ॥१४१८॥ उपायान्तरमपि वदति--
पुवकदमज्झपावं पत्तं परदुःखकरणजादं मे |
रिणमोक्खो मे जादो अज्जत्ति य होदि खमिदव्वं ॥१४१९।। 'पुवकदमज्झपावं' पापागमद्वारमजानता अनेनापि प्रमादिना पूर्व कृतं यत्कर्म पापं परेषां दुःखकारणं तदद्य निवतितं । ऋणमोक्षोऽद्य मम जात इति चिन्तयताऽपसारयितव्यो रोषः ।।१४१९॥
पुव्वं सयमुत्रभुत्तं काले णाएण तेत्तियं दव्वं ।
को घारणीओ धणियस्स दितओ दुक्खिओ होज्ज ॥१३२०।। 'पुग्वं सयमवभुत्तं' पूर्व स्वयमेव भुक्तं, अवधिकाले प्राप्ते । 'णायेण' नीत्या । द्रव्यं अधमर्ण उत्तमर्णाय प्रयच्छन् को दुःखं करोति ॥१४२०॥
गा०-टी०-आगसे तणकी तरह क्रोधसे दुःखसे उपार्जन किया गया दुर्लभ और दुश्चर मेरा धर्म नष्ट होता है। कहा भी है-यह क्रोधरूपी आग मनुष्योंके धर्मवनको जलाती है। यह क्रोधरूपी आग अज्ञानरूपी काष्ठसे उत्पन्न होती है, अपमानरूपी वायु उसे भड़काती है। कठोर वचनरूपी उसके बड़े स्फुलिंग है । हिंसा उसकी शिखा है और अत्यन्त उठा वैर उसका धूम है ।
तथा यह क्रोध मुझे पापका बन्ध कराता है जो अनेक भवोंमें दुःखका बीज है। इसलिये चित्तमें क्षमा धारण करना चाहिए ॥१४१८।।
अन्य उपाय कहते हैं
गा०-पापके आश्रवके द्वारको न जानते हुए मैंने प्रमादवश जो पूर्वमें पापकर्म किया था, जो दूसरोंके दुःखका कारण था, वह आज चला गया। आज मैं उस ऋणसे मुक्त हो गया। ऐसा विचारकर क्रोधको दूर करना चाहिए ॥१३१९॥
गा०-टी०-पूर्व जन्ममें मैंने जिसका अपराध किया था उसके द्वारा इस जन्ममें उस अपराधसे उपार्जित पापकर्मकी उदीरणा किये जाने पर उसको भोगते हुए मुझे दुःख कैसा ? साहूकार . से पहले कर्ज लेकर जिस धनको मैंने स्वयं भोगा है, उतना ही धन उस ऋणका अवधिकाल आने पर देते हुए कौन कर्जदार दुःखी होता है ।।१४२०॥
१. महानपि न-आ० ।
२. जनेना-ज०।
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