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भगवती आराधना
भारं अनेक दुःखावहं । मदीयैर्दोषरस्य किञ्चिन्नायाति दोषजातं । गुणा किमस्मै किञ्चिद्भवति ? प्राणिनां प्रतिनियता गणदोषास्तत्तमेव प्रति सुखदुःखयोजना'स्ततो पुरसृतो (?) मुधानेन कर्मबन्धः सम्पाद्यते इति ॥१४१५।। चिन्ता करुणात्मिका रोषं परुषमपसारयति
जदि वा सवेज्ज संतेण परो तह वि पुरिसेण खमिदव्वं ।
सो अस्थि मज्झ दोसो ण अलीयं तेण भणिदत्ति ॥१४१६॥ ... 'जदि वा सवेज्ज' यदि वा शपेच्च सता दोषेण तथापि क्षमा कार्या। सोऽनेन कथ्यमानो दोषो ममास्ति न व्यलोकं तेनोक्तमिति सङ्कल्पतया न हि सन्तो दोषाः परे चेद् न वन्ति इति विनश्यन्ति ।।१४१६।।
यो यस्य समुपकारं महान्तं चेतसि करोति स तस्यापराधं अल्पं सहते इति प्रसिद्धमेव लोके इति कथयति
सत्तो वि ण चेव हदो हदो वि ण य मारिदो ति य खमेज्ज ।
मारिज्जंतो वि सहेज्ज चेव धम्मो ण णट्ठोत्ति ।।१४१७॥ 'सत्तो वि चेव' . शप्त एवास्मि न हतः इत्यहननं गुणं पृथु चेतसि संस्थाप्य किमनेन शपनेन मे नष्टमिति क्षन्तव्यं । एवमितरत्रापि योज्यं । हत एव न मृत्यु प्रापितः । मार्यमाणोऽपि सहेत विपन्निमूलनक्षमोऽभिलषितसुखसम्पादनोद्यतो धर्मो न विनाशित इति ॥१४१७॥
उपायान्तरमपि रोषविजये निरूपयति--
निन्दा करने वाले पर दया करना चाहिए-बेचारा झूठ बोलकर अनेक दुःख देने वाला पाप भार एकत्र करता है। मेरे दोषोंसे उसमें दोष उत्पन्न नहीं होते और न मेरे गुणोंसे ही उसका कोई लाभ होता है । प्राणियोंके अपने-अपने गुण दोष नियत हैं । उनसे होने वाला सुख-दुःख ही होता है। अतः यह व्यर्थ ही कर्मबन्ध करता है ॥१४१५॥
आगे कहते हैं दया रूप चिन्तनसे कठोर क्रोध दूर होता है
गा.--यदि दूसरा मेरेमें विद्यमान दोषको कहता हैं तब भी क्षमा करना चाहिए क्योंकि वह जिस दोषको कहता है वह मेरेमें है। वह झूठ नहीं कहता। विद्यमान दोषोंको दूसरे यदि न कहें तो वे नष्ट हो जाते हैं, ऐसी बात भी नहीं है ऐसा विचार करना चाहिए ।।१४१६।।
आगे कहते हैं कि जो जिसका महान् उपकार करता है वह उसके छोटेसे अपराधको सहता है यह बात लोकमे प्रसिद्ध ही है
गा०—इसने मुझे अपशब्द ही कहे हैं मारा तो नहीं है, इस प्रकार उसके न मारनेके गुणको चित्त में स्थापित करके 'अपशब्द कहनेसे मेरा क्या नष्ट हआ' अतः क्षमा करना तो भी सहन करना चाहिए कि इसने विपत्तिको जड़से दूर करने में समर्थ और इष्ट सुखको देने वाले मेरे धर्मका नाश नहीं किया ।।१४१७॥ ____ क्रोधको जीतनेका अन्य उपाय कहते हैं
. १. ना पर नृतो-अ० । ना पुर सूतो-आ० । ना परो सृतो-ज। २. संकल्पतयता-मु० । ३. सतो दोषान् आ० । ४. वि खमेज्ज-अ० आ० ।।
मारे
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