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भगवती आराधना सद्दे रूवे गंधे रसे य फासे सुभे य असुमे य ।
तम्हा रागद्दोसं परिहर तं इंदियजएण ।।१४०८|| 'सद्दे स्वे गंधे रसे य' शुभाशुभेषु शब्दादिषु रागद्वेषं च निराकुरु त्वं इन्द्रियजयेनेत्युत्तरसूत्रस्यार्थः ॥१४०८॥
जह णीरसं पि कडुयं ओसहं जीविदत्थिओ पिबदि ।
कडुयं पि इंदियजयं णिव्वइहेतुं तह 'पिविज्ज ॥१४०९।। 'जह णोरसं पि' यथा स्वादुरहितं कटुकमप्यौषधं जीवितार्थ पिवति । तथा इन्द्रियजयं भजते कटुकमपि निर्वृतिहेतुम् ।।१४०९॥
इन्द्रियजये क उपाय इत्याशङ्कायां इन्द्रियकषायविषयाणां शुभाशुभत्वे अनवस्थिते । ये शुभास्त एवेदानी अशुभाः, अशुभा ये ते एव शुभाः । ये तु अशुभतया दोषा इदानी हरि ? से शुभा इति गृहीता न त्वशुभा जातास्त एवामी इति कथं नानुरागस्तत्र ये वाऽशुभास्तेषु कथं द्वेषः शुभतां प्रतिपत्स्यमानेषु इति निवेदयति
जे आसि सुभा एण्हि असुभा ते चेव पुग्गला जादा ।
जे आसि तदा असुभा ते चेव सुभा इमा इहि ॥१४१०।। "जे आसि सुभा एण्हि' ये पुद्गलाः शुभा आसन्निदानी त एवाशुभा जाताः । ये चासन्तदा अशुभा ते चैव शुभा इदानीं इति तौ न युक्तौ रागद्वेषौ इति शिक्षयति ॥१४१०॥
सव्वे वि य ते भुत्ता चत्ता वि य तह अणंतखुत्तो मे । सव्वेसु एत्थ को मज्झ विभओ भुत्तविजडेसु ॥१४११॥
गा०-इसलिए हे क्षपक ! इन्द्रियको जीतकर तू शुभ और अशुभ शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्शमें रागद्वष मत कर ॥१४०८॥
गा०-जैसे जीवनका इच्छुक रोगी स्वादरहित कडुवी औषधी पीता है वैसे ही तू मोक्षके लिए कटुक भी इन्द्रियजयका सेवन कर ॥१४०९॥ .
इन्द्रिय जयका क्या उपाय है ऐसी शंका करनेपर कहते हैं
गा०-टी०-इन्द्रिय और कषायके विषयोंमें अच्छा और बुरापना स्थिर नहीं है। जो विषय आज अच्छे लगते हैं कल वे ही बुरे लगते हैं। जो आज बुरे लगते हैं कल वे ही अच्छे लगते हैं। जिन्हें अच्छा मानकर स्वीकार किया वे ही बुरा लगनेपर द्वेषके पात्र होते हैं तो उनमें अनुराग कैसा? और जो बुरे लगते हैं कल वे ही अच्छे लगनेवाले हैं अतः उनमें द्वेष कैसा? जो पुद्गल इस समय अच्छे प्रतीत होते हैं वे ही बुरे लगने लगते हैं। जो पहले बुरे प्रतीत होते थे वे ही अब अच्छे प्रतोत होते हैं इसलिए उनमें रागद्वष करना उचित नहीं है ॥१४१०॥
गा०-वे अच्छे बुरे सभी पुद्गल मैंने अनन्तवार भोगे हैं और अनन्तवार त्यागे हैं। उन भोगे और त्यागे हुए सब पुद्गलोंमें मुझे अचरज कैसा? इस प्रकार हे क्षपक ! तुम्हें विचारना चाहिए ॥१४११॥
१. भजेज्ज मु०, मूलारा० ।
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