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भगवती आराधना उड्डहणा अदिचवला अणिग्गहिदकसायमक्कडा पावा ।
गंथफललोलहिदया णासंति हु संजमारामं ॥१३९८॥ 'उड्डहणा' असंयता अतिचपला अनिगृहीताः कषायमर्कटाः, परिग्रहफलासक्तहृदया नाशयन्ति संयमारामं ॥१३९८॥
णिच्चं पि अमज्झत्थे तिकालदोसाणुसरणपरिहत्थे ।
संजमरज्जहिं जदी बंधंति कसायमक्कडए ॥१३९९।। "णिच्चं पि' नित्यमपि अमाध्यस्थान्, त्रिकालविषयदोषानुसरणपटून, कपायमकर्टान्यतयः संयमरज्जूभिर्बघ्नन्ति ॥१३९९।।
धिदिवम्मिएहिं उवसमसरेहिं साधूहिं गाणसत्थेहिं ।
इंदियकसायसत्तू सक्का जुत्ते हिं जेदुजे ॥१४००॥ "धिदिवम्मिएहि' धृतिसन्नद्धः, उपशमशरैः साधुभिर्ज्ञानशस्त्रैरुपयुक्तरिन्द्रियकषायशत्रवो जेतुं शक्याः ॥१४००।
इंदियकसायचोरा सुभावणासंकलाहिं वज्झंति ।
ता ते ण विकुव्वंति चोरा जह संकलाबद्धा ॥१४०१॥ 'इदियकसायचोरा' इन्द्रि यकषायचौराः शुभध्यानभावशृंखलाभिर्वध्यन्ते । बन्धस्थास्ते न विकारं कुर्वन्ति शृङ्खलाबद्धचोरा इव ॥१४०१॥
इंदियकसायवग्घा संजमणरपादणे अदिपसत्ता।
वेरग्गलोहदढपंजरेहिं सक्का हुणियमेदु ॥१४०२।। 'इदियकसायवग्धा' इन्द्रियकषायव्याघ्राः संयमनरभक्षणे अत्यासक्ता वैराग्यलोहदृढपञ्जरै नियन्तुं शक्याः ॥१४०२॥
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गा०-ये कषायरूपी बन्दर असंयत हैं, अतिचपल हैं, पापी हैं, इनका हृदय परिग्रहरूपी फलमें आसक्त हैं। इनका यदि निग्रह नहीं किया तो ये संयमरूपी उद्यानका विनाश कर देते हैं ।।१३९८॥
गा०-ये कषायरूपी बन्दर, निरन्तर चपल हैं, त्रिकालवर्ती दोषोंका अनुसरण करने में चतुर हैं। इन्हें संयमी संयमरूपी रस्सीसे बाँधता है ॥१३९९।।
गा०-सन्तोषरूपी कवच, उपशमरूपी बाण और ज्ञानरूपी शस्त्रोंसे सहित साधुओंके द्वारा वे इन्द्रिय और कषायरूप शत्रु जीते जा सकते हैं ।।१४००।। ।
गा०–इन्द्रिय और कषायरूपी चोर शुभध्यानरूप भावोंकी सांकलसे बाँधे जाते हैं। बाँधे जानेपर वे सांकलसे बँधे चोरोंकी तरह विकार नहीं करते ।।१४०१॥
गा०-इन्द्रिय और कषायरूपी व्याघ्र संयमरूपी मनुष्यको खानेके बड़े प्रेमी होते हैं। इन्हें वैराग्यरूपी लोहके मजबूत पीजरेमें रोका जा सकता है ॥१४०२।।
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