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विजयोदया टीका
६७५ 'सम्वे वि ते भुत्ता' सर्वेऽपि च ते पुद्गलाः शुभाशुभरूपा अनुभूतास्त्यक्ता अनन्तवारं मया । तेषु द्रव्येषु भुक्तत्यक्तार्थेषु को विस्मयो ममेति त्वया चिन्ता कार्या ॥१४११॥
सुखसाधनतया यदि तवानुरागो, दुःखसाधनतया च रोषः सैव सुखदुःखसाधनता शुभाशुभादीनां रूपाणां नैवास्ति सङ्कल्पमन्त रेणात्मनः इति वदति
रूवं सुभं च असुभं किंचि वि दुक्खं सुहं च ण य कुणदि ।
संकप्पविसेसेण हु सुहं च दुःखं च होइ जए ॥१४१२।। 'रूवं सुभं च असुभं' रूपं शुभमशुभं वा किञ्चिदुःखं सुखं च नैव करोति । सङ्कल्पवशेनैव सुखं वा दुखं भवति जगति ॥१४१२॥
इह य परत्त य लोए दोसे बहुगे य आवहइ चक्खू ।
इदि अप्पणो गणित्ता णिज्जेदवो हवदि चक्खू ॥१४१३॥ 'इह य परत्त य' जन्मद्वयेऽपि बहून्दोषानावहति चक्षुरित्यात्मनावगणय्य निर्जेतव्यं चक्षुः ॥१४१३॥
एवं सम्म सदरसगंधफासे विचारयित्ताणं ।
सेसाणि इंदियाणि वि णिज्जेदव्वाणि बुद्धिमदा ॥१४१४॥ "एवं सम्म' उभयजन्मगोचरानेकदोषावहत्वं विचार्य स्वबुद्धया शेषाण्यपीन्द्रियाणि शब्दरसगन्धस्पर्शविषयाणि निर्जेतव्यानि बुद्धिमता । 'सद्दरसगंधफासे' इति वैषयिकी सप्तमी ॥१४१४॥ क्रोधजयोपायमाचष्टे
जदिदा सवदि असंतेण परो तं णत्थि मेत्ति खमिदव्वं ।
अणुकंपा वा कुज्जा पावइ पावं वरावोत्ति ॥१४१५॥ 'जविधा सववि असंतेण' यदि तावदसता दोषेण शपति परः स दोषो न ममास्तीति क्षमा कार्या । असद्दोषख्यापनेनास्य मम किं नष्टं इति । अथवानुकम्पां आक्रोशके कुर्याद्वराकोऽसदभिधानेन समाजयति पाप
आगे कहते हैं यदि सुखका साधन होनेसे इनमें तेरा अनुराग है और दुःखका साधन होनेसे द्वष है तो अच्छे बुरे पुद्गलोंमें वही सुख-दुःख साधनता तेरे संकल्पके सिवाय यथार्थमें नहीं है
गा०-कोई अच्छा या बुरा रूप सुख या दुःख नहीं करता। जगत्में संकल्पवश ही सुखदुःख होता है ॥१४१२॥
गा०-इस लोक और परलोकमें ये आँखें बहुत बुराई उत्पन्न करती हैं ऐसा जानकर चक्षु इन्द्रियको जीतना चाहिए ॥१४१३॥
गा०-इस प्रकार दोनों लोकोंमें अनेक दोष उत्पन्न करने वाली जान अपनी बुद्धिसे विचारकर शब्द, रस, गन्ध और स्पर्शको विषय करने वाली शेष इन्द्रियोंको भी बुद्धिमान् पुरुषको जीतना चाहिए ॥१४१४॥
क्रोधको जीतनेका उपाय कहते हैं
गा०-टो०-यदि दूसरा व्यक्ति मेरेमें अविद्यमान दोषको कहता है तो वह दोष मुझमें नहीं है अतः उसे क्षमा करना चाहिए; क्योंकि असत् दोषको कहनेसे मेरी क्या हानि हुई ? अथवा
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