________________
विजयोदया टीका जध करिसयस्स धण्णं वरिसेण समज्जिदं खलं पत्तं ।
डहदि फुलिंगो दित्तो तध कोहग्गी समणसारं ॥१३६१।। 'जह करिसगस्स' यथा कर्षकस्य धान्यं वर्षेण समाजितं खलप्राप्तं दहति विस्फुलिङ्गो दीप्तस्तथा क्रोधाग्निदहति श्रमणस्य सारं पुण्यपण्यं ।।१३६१।।
जध उग्गविसो उरगो दब्भतणंकुरहदो पकुप्पंतो।
अचिरेण होदि अविसो तध होदि जदी वि णिस्सारो ।।१३६२।। 'जह उग्गविसो उरगो' यथोग्रविष उरगो । दर्भतृणाङ्करहतः तत्प्रकृष्टरोषवशमुपनयन् स्पष्टं तृणादिकं भक्षयित्वा झटिति निर्विषो भवति । तथा यतिरपि निस्सारो भवत्यचिरेण रत्नत्रयविनाशात् ॥१३६२।।
पुरिसो मक्कडसरिसो होदि सरूवो वि रोसहदरूवो ।
होदि य रोसणिमित्तं जम्मसहस्सेसु य दुरूवो ॥१३६३।। 'पुरिसो मक्कडसरिसो' पुरुषो मर्कटसदृशो भवति सुरूपोऽपि सन् रोषोऽपहतरूपः । इह जन्मनि दोषानुपदर्य पारभविकमाचष्टे-'होदि' भवति । जन्मसहस्रषु दुरूप एकभवकृतात्कोपात् ॥१३६३॥
सुट्ठ वि पिओ मुहुत्तेण होदि वेसो जणस्स कोषेण ।
पघिदो वि जसो णस्सदि कुद्धस्स अकज्जकरणेण ॥१३६४॥ 'सुवि' नितरामपि । जनस्य प्रियो मुहूर्तमात्रेणैव द्वष्यो भवति रोषेण प्रथितमपि यशो नश्यति । कस्य ? 'कुखस्य अकज्जकरणेन' क्रुद्धस्य अकार्यकरणेन ॥१३६४॥
णीयल्लगो वि 'रुट्ठो कुणदि अणीयल्ल एव सत्त वा ।
मारेदि तेहिं मारिज्जदि वा मारेदि अप्पाणं ।।१३६५॥ गा०-जैसे चिनगारी एक वर्षके श्रमसे प्राप्त खलिहानमें आये किसानके धान्यको जला देती है उसी प्रकार क्रोधरूपी आग श्रमणके जीवन भरमें उपार्जित पुण्य धनको जला देती है ॥१३६१॥
___ गा०-जैसे उग्र विषवाले सर्पको घासके एक तिनकेसे मारने पर वह अत्यन्त रोषमें आकर उस तिनके पर अपना विष वमन करके तत्काल विष रहित हो जाता है उसी प्रकार यति भी क्रोध करके अपने रत्नत्रयका विनाश करता है और शीघ्र ही निस्सार हो जाता है ।।१३६२।।
गा०-सुन्दर सुरूप पुरुष भी क्रोधसे रूपके नष्ट हो जाने पर बन्दरके समान लाल मुखवाला विरूप हो जाता है। इस जन्ममें क्रोधके दोष दिखलाकर परलोकमें दिखलाते हैं एक भवमें क्रोध करनेसे हजारों जन्मोंमें कुरूप होता है ॥१३६३॥
गा०-क्रोध करनेसे अत्यन्त प्रिय व्यक्ति भी मुहूर्त मात्रमें ही द्वषका पात्र होता है। तथा क्रोधी मनुष्यके अनुचित काम करनेसे उसका फैला हुआ यश भी नष्ट हो जाता है ।।१३६४।।
१. वि कुद्धो आ० मु०।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org