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विजयोदया टीका
६६१ राष्ट्रकूटभार्या । 'णासक्के' नासिक्ये नगरे । 'मारेदूण सपुत्तं' स्वपुत्रं हत्त्वा । 'धूदाए' दुहित्रा । 'पच्छा पश्चात् । 'मरिदा' मृति नीता ॥१३५३॥ इंदिया। एवमिन्द्रियदोषानुपदश्य कोपदोषप्रकटनार्थ प्रक्रम्यते--
रोसाइट्ठो णीलो हदप्पभो अरदिअग्गिसंसत्तो।
सीदे वि णिवाइज्जदि वेवदि य गहोवसिट्ठो व ॥१३५४।। 'रोसाविट्ठो' रोषाविष्टः । नीलवर्णो भवति 'हदप्पभो' विनष्टदीप्तिः। 'अरदिअग्गिसंतत्तो' अरत्यग्निसंतप्तः । 'सोदे वि णिवाइज्जई' शोतेऽपि तृषितो भवति । 'वेवदि' वेपते च । 'गहोवसिट्ठोव' ग्रहेणोपसृष् इव ॥१३५४॥
भिउडीतिवलियवयणो उग्गदणिच्चलसुरत्तलुक्खक्खो ।
कोवेण रक्खसो वा णराण भीमो णरो भवदि ॥१३५५।। 'भिउडीतिवलियवयणो' भृकुटीत्रिवलितवदनो। 'उग्गदणिच्चलसुरत्तलुक्खवखो' उद्गतनिश्चलसुरक्तरूक्षेक्षणः । 'रोसेण' रोषेण हेतुना । 'रक्खसो' राक्षस इव । ‘णराण भीमो णरो होदि' नराणां भीमो भयावहो भवति नरः ॥१३५५।।
जह कोइ तत्तलोहं गहाय रुट्ठो परं हणामित्ति ।
पुव्वदरं सो डज्झदि डहिज्ज व ण वा परो पुरिसो ॥१३५६।। 'जह कोई' यथा कश्चित् 'तत्तलोहं गहाय' तप्तलोहं गृहीत्वा । किमर्थ ? 'रुट्ठो परं हणामित्ति'
गा--सुवेग नामक चोर युवती स्त्रियोंके रूपको देखनेका अनुरागी था। उसकी आँखमें बाण लगा और वह मरकर नरक गया ॥१३५२।।
विशेषार्थ-बृ० क० को० में इसकी कथा ११६ वीं है। उसमें सुवेगको म्लेच्छराज कहा है ॥१३५२॥
गा०-नासिक नगर में गृहपति सागरदत्तकी भार्या नागदत्ता स्पर्शन इन्द्रियके कारण अपने ग्वाले पर आसक्त थी। उसने अपने पुत्रको मारा तो उसकी लड़कीने अपनी मांको मार दिया ।।१५५३॥ .
विशेषार्थ-इसकी कथा उसी कथाकोशमें ११७ नम्बर पर है ॥१३५३॥ इस प्रकार इन्द्रियके दोष बतलाकर क्रोधके दोष बतलाते हैं
गा०-टो०-जो क्रोधसे ग्रस्त होता है उसका रंग नीला पड़ जाता है, कान्ति नष्ट हो जाती है, अरतिरूपी आगसे संतप्त होता है। ठंडमें भी उसे प्यास सताती है और पिशाचसे गृहीत की तरह क्रोधसे काँपता है ।।१३५४॥ भृकुटी चढ़नेसे मस्तक पर तीन रेखाएँ पड़ जाती है, लाल लाल निश्चल आँखें बाहर निकल आती हैं । इस तरह क्रोधसे मनुष्य दूसरे मनुष्योंके लिए राक्षसकी तरह भयानक हो जाता है ॥१३५५॥
मा०-जैसे कोई पुरुष रुष्ट होकर दूसरेका घात करनेके लिए तपा लोहा उठाता है। ऐसा करनेसे दूसरा उससे जले या न जले, पहले वह स्वयं जलता है ।।१३५६॥
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