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भगवती आराधना ‘णीयल्लगो वि 'रुट्ठो' बन्धुरपि बन्धून्करोति शत्रुवत् । हन्ति बान्धवान् । मार्यते वा स्वयं तैरात्मानं वा हन्यात् ॥१३६५॥
पुज्जो वि णरो अवमाणिज्जदि कोवेण तक्खणे चेव ।
जगविस्सुदं वि णस्सदि माहप्पं कोहवसियस्स ।।१३६६।। . 'पुज्जो वि' पूज्योऽपि नरो अवमन्यते रोषेण । तत्क्षण एव जगति विश्रुतमपि माहात्म्यं नश्यति रोषिणः ॥१३६६॥
हिंसं अलियं चोज्जं आचरदि जणस्स रोसदोसेण ।
तो ते सव्वे हिंसालिया दि दोसा भवे तस्स ॥१३६७।। "हिंसं अलियं चोज्ज' हिंसामसत्यं चौर्य वाचरति जनस्य रोषदोषेण । तस्मात्तस्य हिंसादिप्रभवा दोषा भवे भविष्यन्ति ॥१३६७।।
वारवदीय असेसा दड्डा दीवायणेण रोसेण ।
बद्धं च तेण पावं दुग्गदिभयबंधणं घोरं ॥१३६८।। 'वारवती' द्वारवती । निश्शेषा दग्धा रुष्टेन द्वीपायनेन । घोरं च पापं बद्ध दुर्गतिभयप्रवृत्ति निमित्तं । 'कोत्ति गर्द' ॥१३६८॥ मानदोषप्रकटनार्थः प्रबन्ध उत्तरः
कुलरुवाणाचलसुदलाभस्सरयत्थमदितवादीहि ।
अप्पाणमुण्णमंतो नीचागोदं कुणदि कम्मं ॥१३६९।। 'कुलरूवाणा' कुलेन रूपेण आज्ञया, बलेन, श्रुतेन, लाभेन, ऐश्वर्येण मत्या तपसाऽन्यश्च आत्मानमुत्कषयन्नीचैर्गोत्रं कर्म बध्नाति ॥१३६९।।
___ गा.-क्रोधी मनुष्य अपने निकट सम्बन्धियोंको भी असम्बन्धी अथवा शत्रु बना लेता है। उनको मारता है या उनके द्वारा मारा जाता है अथवा स्वयं मर जाता है ॥१३६५।।
___गा०-पूजनीय मनुष्य भी क्रोध करनेसे तत्काल अपमानित होता है। क्रोधीका जगत्में प्रसिद्ध भी माहात्म्य नष्ट हो जाता है ॥१३६६॥ "
गा०-क्रोधके कारण मनुष्य लोगोंकी हिंसा करता है, उनके सम्बन्धमें झूठ बोलता है, चोरी करता है । अतः उसमें हिंसा झूठ आदि सब दोष होते हैं ॥१३६७॥ . गा०-दीपायन मुनिने क्रोधसे समस्त द्वारका नगरी भस्म कर दी। और दुर्गतिमें ले जाने वाले घोर पापका बन्ध किया ।।१३६८।
क्रोध का कथन समाप्त हुआ । - आगे मानके दोष कहते हैं
गा०-कुल, रूप, आज्ञा, बल, श्रुत, लाभ, ऐश्वर्य, तप तथा अन्य बातोंमें अपनेको बड़ा १. विकुद्धो आ० । २. लियचोज्अ समुभवा दोसा-मु० ।
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