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विजयोदया टीका
६६५ दण अप्पणादो हीणे मुक्खाउ विंति माणकलिं ।
दट्टण अप्पणादो अधिए माणं णयंति बुधा ।।१३७०।। 'दठूण अप्पणादो' आत्मनो हीनान् दृष्ट्वा मूर्खा मानकलि उद्वहन्ति । बुधाः पुनरात्मनोऽधिकान्बुद्धयावलोक्य मानं निरस्यन्ति ।।१३७०।।।
माणी विस्सो सव्वस्स होदि कलहभयवेरदुक्खाणि । .
पावदि माणी णियदं इहपरलोए य अवमाणं ।।१३७१।। 'माणी विस्सो सम्वस्स' मानी सर्वस्य द्वेष्यो भवति । कलहं, भयं, वैरं, जन्मान्तरानुगं दुःखं च प्राप्नोति । नियोगत इह परत्र चावमानं ॥१३७१॥
सव्वे वि कोहदोसा माणकसायस्स होदि णादव्वा ।
माणेण चेव मेधुणहिंसालियचोज्जमाचरदि ।।१३७२।। 'सम्वे वि कोघदोसा' क्रोधस्य वणिता दोषाः । 'न गुणे पिच्छदि' इत्येवमादिसूत्रेण ते सर्वे मानकषायस्यापि ज्ञातव्याः । मानेन मैथुने चौर्ये हिंसायामसत्याभिधाने च प्रयतते ॥१३७२।।
सयणस्स जणस्स पिओ णरो अमाणी सदा हवदि लोए ।
णाणं जसं च अत्थं लभदि सकज्जं च साहेदि ॥१३७३।। 'सयणस्स' मानरहितः स्वजनस्य परजनस्य च सदा प्रियो जनो भवति । 'लोए' लोके । 'गाणं' ज्ञानं । 'जसं' यशः, 'अत्थं' द्रविणं लभते स्वं कार्यमन्यदपि साधयति ॥१३७३।।
ण य परिहायदि कोई अत्थे मउगत्तणे पउत्तम्मि ।
इह य परत्त य लब्भदि विणएण हु सव्वकल्लाणं ।।१३७४॥ 'ण य परिहायदि' मार्दवे प्रयुक्ते नैव कश्चिदर्थो हीयते येनायमर्थहानिभयात् मानं कुर्यात् । मार्दवे तु प्रयुक्त इह जन्मान्तरे च लभ्यते विनयेनैव सर्वकल्याणं ॥१३७४।।
मानने वाला, उनका अहंकार करनेवाला नीच गोत्र नामक कर्मका बन्ध करता है ।।१३६९।।
गा०-अपनेसे हीन व्यक्तियोंको देखकर मूर्ख लोग मान करते हैं। किन्तु विद्वान् अपनेसे बड़ोंको देखकर मान दूर करते हैं ।।१३७०।।
गा--मानीसे सब द्वेष करते हैं । वह कलह, भय, वैर और दुःखका पात्र होता है तथा इस लोक और परलोकमें नियमसे अपमानका पात्र होता है ।।१३७१।।।
गा०-पहले जो क्रोधके दोष कहे हैं वे सब दोष मानकषायके भी जानना । मानसे मनुष्य हिंसा, असत्य बोलना, चोरी और मैथुनमें प्रवृत्ति करता है ॥१३७२।।
गा०-मान रहित व्यक्ति जगत्में स्वजन और परजन सदा सबका प्रिय होता है। वह ज्ञान, यश और धन प्राप्त करता है तथा अन्य भी अपने कार्यको सिद्ध करता है ।।१३७३॥
गा०-मार्दव युक्त व्यवहार करने पर कोई धनहानि नहीं होती जिससे धनहानिके भयसे मनुष्य मान करे । विनयसे इस जन्ममें और जन्मान्तरमें सर्व कल्याण प्राप्त होते हैं ॥१३७४॥
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