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भगवती आराधना
'इंदियकसायगुरुगत्तणेण' कषायाक्षगुरुकृतत्वेन सूत्रमप्रमाणयन् । 'परिमाणेदि' अन्यथा गृह्णाति । "जिणुत्ते अत्थे' जिनोक्तानान् । 'सच्छंददो चेव' स्वेच्छाभिप्रायेणेव ।। जधाछौंद ॥१३०६।।
इदियकसायदोसेहिं अघवा सामण्णजोगपरितंतो ।
जो उव्वायदि सो होदि णियत्तो साधुसत्थादो ॥१३०७।। 'इदियकसायदोसेहि' इंद्रियकषायदोषः । 'अधवा सामण्णजोगपरितंतो' अथवा सामान्ययोगेन दान्तः । 'जो उव्वायदि' यश्चारित्राच्च्यवते । 'सो होदि' स भवति । 'णयत्तो साधुसत्यावो' निवृत्तः साधुसार्थात् ॥१३०७॥
इंदियकसायवसिया केई ठाणाणि ताणि सव्वाणि ।
पाविज्जते दोसेहिं तेहिं सव्वेहिं संसत्ता ॥१३०८॥ 'इदियकसायवसिगा' इन्द्रियकषायवशगाः । 'केई' केचित् । 'ठाणाणि ताणि सव्वाणि' तान्यशुभस्थानपरिणामानि । 'पाविज्जति' प्राप्यन्ते । 'दोसेहि तेहिं सर्वहिं संसत्ता' दोषस्तैः सर्वैः संसक्ताः । संसत्ता ॥१३०८॥
इय एदे पंचविधा जिणेहिं सवणा दुगुंच्छिदा सुत्ते ।
इंदियकसायगुरुयत्तणेण णिच्चंपि पडिकुद्धा ॥१३०९।। पासत्यत्तिगदं ॥१३०९॥
दुट्टा चवला अदिदुज्जया य णिच्चं पि समणुबद्धा य ।
दुक्खावहा य भीमा जीवाणं इंदियकसाया ।।१३१०॥ 'दुट्ठा' दुष्टा आत्मोपद्रवकारित्वात् । 'चपला' अनवस्थितत्वात् । 'अदिदुज्जया य' अतीव दुर्जयाः अनुपलब्धचारित्रमोहक्षयोपशमप्रकर्षण जीवेन दुःखेन अभिभूयन्ते इति । “गिच्चंपि' नित्यमपि । 'समणुबद्धा य'
गा०-इन्द्रिय और कषायोंकी प्रबलताके कारण वह आगमको प्रमाण नहीं मानता । और अपनी इच्छाके अनुसार जिनभगवानके द्वारा कहे गये अर्थको विपरीतरूपसे ग्रहण करता हैं ॥१३०६॥
__ गा०–इन्द्रिय और कषायोंके दोषसे अथवा सामान्य योगसे विरक्त होकर जो चारित्रसे गिर जाता है वह साधु संगसे अलग हो जाता है ॥१३०७।।
अब संसक्त मुनिका स्वरूप कहते हैं
गा०-इन्द्रिय और कषाओंके वशमें हुए कोई मुनि उन सब दोषोंमें संसक्त होकर उन सब अशुभ स्थान रूप परिणामोंको प्राप्त होते हैं ॥१३०८।।
गा०-इस प्रकार ये पाँच प्रकारके मुनि जिन भगवान्के द्वारा आगममें निन्दनीय कहे हैं। ये इन्द्रिय और कषायोंकी प्रबलता होनेसे नित्य ही जिनागमसे विमुख रहते हैं ।।१३०९।। .
गा०-टो०-इन्द्रिय और कषायरूप परिणाम बड़े दुष्ट हैं क्योंकि ये आत्मामें उपद्रव पैदा करते हैं । अनवस्थित होनेसे चपल हैं । इनको जीतना अति कठिन है क्योंकि जिस जीवके चारित्र
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