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भगवती आराधना 'अंतोजादकोधस्स' अन्तर्जातस्य कोपस्य लिङ्ग लिङ्गभावः । बाह्यानामभ्यन्तराणां चैवं भवति यदि परस्पराविनाभाविता स्यादग्निधूमयोरिव । प्रसिद्धश्च लिङ्गलिङ्गिभावः कार्येण बाह्येन कारणस्याभ्यन्तरस्येति भावार्थः ॥१३४४॥
ते चेव इंदियाणं दोसा सव्वे हवंति णादव्वा ।
कामस्स य भोगाण य जे दोसा पुव्वणिदिट्ठा ।।१३४५॥ 'ते चेव इंदियाणं दोसा' त एवेन्द्रियाणां सर्वेषां दोषा भवन्ति इति ज्ञातव्याः । के ? 'ये दोसा पुन्व णिहिटठा' ये दोषाः पूर्वनिदिष्टाः । 'कामस्स य भोगाण य' कामस्य भोगानां च संबन्धितया निर्दिष्टाः दोषाः ॥१३४५॥
महुलित्तं असिधारं तिक्खं लेहिज्ज जघ णरो कोई ।
तघ विसयसुहं सेवदि दुहावहं इहहि परलोगे ।।१३४६॥ 'मधुलित्तं' मधुना लिप्तां । 'असिधारं' असे/रां । 'तिक्स' तीक्ष्णां । 'जह गरो कोई लेहिज्ज' यथा नरः कश्चिदास्वादयति जिह्वया । 'तह विसयसुहं सेवदि' तथा विषयसुखं सेवते । 'दुहावहं इह य परलोए' दुःखावहमत्र जन्मनि परत्र च, स्वल्पसुखतया बहुदुःखतया च साम्यं दृष्टान्तदा न्तिकयोः ॥१३४६।।
एकैकेन्द्रियविषयवशवर्तिभिमृगादिभिरुपद्रवो ह्याप्तः, किं पुनरशेषेन्द्रियविषयलम्पटैर्जनैः प्राप्येऽनर्थे वाच्यमिति मत्वाचष्टे
सद्देण मओ रूवेण पदंगो वणगओ वि फरिसेण । मच्छो रसेण भमरो गंधेण य पाविदो दोसं ॥१३४७॥
चिह्न है। जैसे क्रोध उत्पन्न होनेका चिह्न भृकुटी चढ़ाना होता है। इस प्रकार बाह्य और अभ्यन्तरको अग्नि और धूमकी तरह परस्परमें अविनाभाविता है। अर्थात् जैसे आगके होनेपर ही धूम होता है अतः जहाँ धूम होता है वहाँ आग अवश्य होती है। इसीको अविनाभाविता कहते हैं। धूम लिंग है आग लिंगी है। इसी प्रकार बाह्य कार्यके साथ अभ्यन्तर कारणका लिंगलिंगी भाव सम्बन्ध जानना ॥१३४४॥
गा-जो दोष पहले काम और भोगके सम्बन्धमें कहे हैं वे ही सब दोष इन्द्रियोंके सम्बन्धमें जानना ॥१३४५॥
गा०-टी०-जैसे कोई मनुष्य जिह्वाके द्वारा मधुसे लिप्त तलवारको तीक्ष्ण धारको चाटता है वैसे ही मनुष्य विषय सुखका सेवन करता है जो इस जन्ममें और परजन्ममें दुःखदाया है। जैसे मधुलिप्त तलवारकी धारको जिह्वासे चाटनेसे प्रारम्भमें मधुके कारण थोड़ा सुख होता है किन्तु जीभ कट जानेपर बहुत दुःख होता है उसी प्रकार विषय भोगमें भी सुख अल्प है दुःख बहुत है ।।१४४६॥
आगे कहते हैं कि एक एक इन्द्रियके विषयमें आसक्त हिरन आदि कष्ट भोगते हैं तब समस्त इन्द्रियोंके विषयोंमें आसक्त जनोंके द्वारा प्राप्य अनर्थका क्या कहना है--
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