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विजयोदया टीका
६५१ बंधणमुक्को पुनरेव बंधणं सो अचेयणोदीदि ।
इंदियकसायबंधणमुवेदि जो दिक्खिदो संतो ॥१३२०॥ 'बंधणमुक्को' बन्धनमुक्तः । 'पुनरेव बंधणं' पुनर्बन्धनं । 'अदीदि' प्रतिपद्यते । 'सो अचेदणो' सोऽज्ञः । कः ? 'जो दिक्खिदो संतो ईदियकसायबंधणमुवेदि' यो दीक्षितः सन्निद्रियकषायबन्धमुपैति । इन्द्रियकषायपरिणामाः कर्मबन्धनक्रियायां साधकतमतया इह बन्धनशब्देनोच्यन्ते ॥१३२०॥
मुक्को वि णरो कलिणा पुणो वि तं चेव मग्गदि कलिं सो ।
जो दिक्खिदो वि इंदियकसायमइयं कलिमुवेदि ।।१३२१।। प्रसिद्धार्था ॥१३२१॥ उत्तरगाथा
सो णिच्छदि मोत्तुं जे हत्थगयं उम्मुयं सुपज्जलियं ।
सो अक्कमदि कण्हसप्पं छादं वग्धं च परिमसदि ॥१३२२।। 'सो णिच्छदि' स नेच्छति । 'मोत्तुं' मोक्तुं । कि ? 'हत्थगयं' हस्तस्थितं हस्तगतं वा । 'उम्मुक्कं संपज्जलियं' उल्मकं सुष्ठ प्रज्वलितं । 'सो कण्हसप्पमक्कमदि' स कृष्णसर्पमानामति । 'छादं वग्धं च परिमसदि' क्षुधोपद्रुतं व्याघ्रं च स्पृशति ॥१३२२॥
सो कंठोल्लगिदसिलो दहमत्थाहं अदीदि अण्णाणी।
जो दिक्खिदो वि इंदियकसायवसिगो हवे साधू ॥१३२३।। 'सो कंठोल्लगिदसिलो' स कण्ठावलम्बितशिलः । 'दहमत्थाहं' हृदमगाधं । 'अदीदि' प्रविशति । 'अण्णाणी' अज्ञः । 'जो दिक्खिदो विय' यो दीक्षितोऽपि 'इदियकसायवसिगों' इन्द्रिकषायवशवर्ती सादृश्यादभेदव्यवहारः ॥१३२३॥ धारण करके इस प्रकारके गृहवास सम्बन्धी दोषोंसे मुक्त होकर भी पुनः उन्हीं दोषोंको स्वीकार करता है ॥१३१९॥
गा०-जो दीक्षित होकर इन्द्रिय और कषायोंके बन्धनमें पड़ता है वह अज्ञानी बन्धनसे मुक्त होकर पुनः बन्धनको प्राप्त होता है ॥१३२०॥
गा०-जो दीक्षित होकर भी इन्द्रिय कषायमयी कलिको स्वीकार करता है वह मनुष्य कलिकालसे मुक्त होकर भो पुनः उसो कलिको खोजता है ।।१३२१॥
गा०--जो साधु दीक्षित होकर भी इन्द्रिय और कषायोंके बन्धनमें पड़ता है वह हाथमें स्थित जलते हुए अलातको छोड़ना नहीं चाहता, वह काले साँपको लाँघता है और भूखे व्याघ्रका स्पर्श करता है ।।१३२२।।
गा०-जो साधु दीक्षित होकर भी इन्द्रिय और कषायके अधीन होता है वह अज्ञानी अपने गले में पत्थर बांधकर अगाध तालाबमें प्रवेश करता है ॥१३२३।।
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