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विजयोदया टोका
४२९ दुर्वलं तपोयोगासहमिति एवमादिकस्तन्निरासाय सावधविशेषणं सावद्यसंक्लिष्टः । 'गालेदि गुणे' गालयति गुणान् दर्शनज्ञानचारित्राणि । 'णवं च आदियदि' कर्म च आदत्ते अभिनवं । 'पुव्वकवं च दढं कुणदि' पूर्वाजितं च दृढीकरोति कषायपरिणामनिमित्तत्वात् स्थितिबन्धस्य । 'दुग्गदिभयकारणं' दुर्गतयः नारकत्वादयः विचित्रवेदनासहस्रसंकुलास्तासु भयं वर्द्धयति, यत्कर्माशुभं तदादत्ते स्थिरयति ॥६२३॥
पडिसेवित्ता कोई पच्छत्तावेण डज्झमाणमणो ।
संवेगजणिदकरणो देसं घाएज्ज सव्वं वा ॥६२४।। 'पडिसेवित्ता कोई' कश्चित्कृतासंयमादिसेवनोऽपि । 'पच्छत्तावेण डज्झमाणमणो' पश्चात्तापेन दह्यमानचित्तः । 'संवेगजणिदकरणो' संसारभीरुताजनितसंयमनक्रियः। 'देसं सम्वं वा घादेज्ज' आत्माभिनवसंचितकर्मपुद्गलस्कंधैकदेशनिर्जरां वा करोति, समस्तं वा तद् घातयेत् । यदि मध्यमो मन्दो वा परिणामो देशं घातयति । अथ तीव्रः समस्तं इति भावः ॥६२४॥
तो णच्चा सुत्तविद् णालियघमगो व तस्स परिणामं ।
जावदिएण विसुज्झदि तावदियं देदि जिदकरणो ॥६२५॥ 'तो' तस्मात् । 'गच्चा' ज्ञात्वा । 'सुत्तविदू' प्रायश्चित्तसूत्रज्ञः सूरिः । किं ? 'तस्स परिणाम' कृतापराधस्य परिणामं । कथं परकीयः परिणामो ज्ञायते इति चेत सहवासेन तीव्रक्रोधस्तीवमान इत्यादिकं सुज्ञातमेव तत्कार्योपलम्भात्, तमेव वा परिपृच्छय, कीदृग्भवतः परिणामोऽतिचारसमकालं वृत्त इति । किमिव ? 'गालिगधमगोव्व' नालिकया यो धमति सुवर्णकारः सोऽग्नेबलाबलं विदित्वा धमनं करोति, एवं सूरिरपि अस्य कर्म तनुतरं महद्वेति विदित्वा । 'जावदिगेण' यावता प्रायश्चित्तेन । 'विसुज्झदि' विशुद्धयति । 'तावदिगं' तावत्परिमाणं प्रायश्चित्तं अल्पं महद्वा । 'देदि' ददाति । 'जिदकरणो' परिचितप्रायश्चित्तदानक्रियः ॥६२५।। नहीं होता? या मेरे सम्पूर्ण चारित्र क्यों नहीं है ? मेरा शरीर क्यों इतना दुर्बल है कि तपोयोगको सहन नहीं करता ? इत्यादि संक्लेश चित्त बाधारूप है। उससे अलग करनेके लिए सावध विशेषण देकर 'सावध संक्लिष्ट' कहा है । यह सावद्य संक्लेश सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र गुणोंका नाश करता है । नवीन कर्मका बन्ध करता है। पूर्व संचित कर्मोंको दृढ़ करता है। क्योंकि स्थिति बन्ध कषाययुक्त परिणामके निमित्तसे होता है। नाना प्रकारके हजारों वेदनाओंसे व्याप्त नारक आदि दुर्गतियोंके भयको बढ़ाता है । अशुभ कर्मको स्थिर करता है ॥६२३।।
___ गा०-टी०-कोई असंयम आदिका सेवन करके भी पश्चात्तापके द्वारा अपने चित्तको जलाता है अर्थात् उसे अपने कर्म पर पश्चात्ताप होता है और वह संसारसे भयभीत होकर संयमका पालन करता है । तब वह अपने द्वारा संचित नवीन कर्म पुद्गल स्कन्धोंके एक देशकी निर्जरा करता है अथवा समस्त कर्म पुद्गल स्कन्धका घात करता है। यदि परिणाम मध्यम या मन्द होते हैं तब एक देशकी निर्जरा करता है। और तीव्र होते हैं तो समस्तका घात करता है ॥६२४॥
गा०-टी०-अतः प्रायश्चित्त शास्त्रका ज्ञाता और प्रायश्चित्त देनेकी क्रियासे परिचित, आचार्य उस अपराधी भिक्षुके परिणामोंको जानकर जितने प्रायश्चित्तसे उसकी विशुद्धि हो उतना ही थोड़ा या बहुत प्रायश्चित्त देते हैं। जैसे सुवर्णकार आगका बलाबल जानकर तदनुसार उसे धौंकनी से धौंकता है। उसी प्रकार आचार्य भी उसका अपराध थोड़ा या बहुत है यह जानकर प्रायश्चित्त देते हैं । दूसरेके परिणाम आचार्य कैसे जानते हैं ? इसका उत्तर है कि साथ रहनेसे यह
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