Book Title: Bhagavati Aradhana
Author(s): Shivarya Acharya
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

Previous | Next

Page 613
________________ भगवती आराधना ... तेषां मासानां 'रत्तं सत्तमम्मि मासे' रक्तं सप्तमें मासे । 'उप्पलणालसरिसी नाही हवई' उत्पलनालसदृशीनाभिर्भवति । 'ततो' नाभिनिष्पत्त्युत्तरकालं । 'वमिगं तं आहारेवि णाभोए' वान्तमाहारयति नाभ्या ॥१०११॥ वमियं व अमेझं वा आहारिदवं स किं पि ससमक्खं । होदि हु विहिंसणिज्जो जदि वि य णियल्लओं होज्ज ॥१०१२।। 'वमिगं व अमिज्झं वा' वान्तममेध्यं वा । 'आहारिदवं' भुक्तवान् । 'स किं पि' सकृदपि एकवारं । 'ससमक्खं' स्वप्रत्यक्ष । 'होदि खु विहिंसणिज्जो' भवति जुगुप्सनीयो । 'यदि वि य णियल्लिओ होज्ज' यद्यपि बन्धुर्भवेत् ।।१०१२॥ किह पुण णवदसमासे आहारेदृण तं णरो वमियं । होज्ज ण विहिंसणिज्जो जदि वि य णीयल्लओ होज्ज ॥१०१३।। स्पष्टोत्तरा गाथा । आहारगदं सम्मत्तं । आहारो निरूपितः ॥१०१३।। जन्मनिरूपणायोत्तरगाथा असुचिं अपेच्छणिज्जं दुग्गंधं मुत्तसोणियदुवारं । वोत्तु पि लज्जणिज्ज पोट्टमुहं जम्मभूमी से ॥१०१४॥ 'अशुचिं' अशुचि । 'अपेच्छणिज्ज' अप्रेक्षणीयं । 'दुग्गंध' दुर्गन्धं । 'मुत्तसोणियदुवारं' मूत्रस्य शोणितस्य च द्वारं । 'वोत्तु पि लज्जणिज्ज' वक्तुमपि स्वनाम्ना लज्जनीयं । 'पोट्टमुहं' उदरमुखं वराङ्ग । 'जम्मभूमी से' जन्मभूमिस्तस्य ॥१०१४॥ जदि दाव विहिंसज्जइ वत्थीए मुहं परस्स आलेट् टु। कह सो विहिंसणिज्जो ण होज्ज सल्लीढपोट्टमुहो ॥१०१५।। गा०-इसके पश्चात् सातवें मासमें कमलकी नालके समान नाभि होती है। नाभिके बननेके पश्चात् उस वमन किये आहारको नाभिके द्वारा ग्रहण करता है ॥१०११।। गा०-यदि कोई अपने सामने एक बार भी वमन किये गये आहारको या गन्दे विष्टाको खाता है तो अपना प्रिय बन्धु भी यदि हो तो उससे ग्लानि होती है ॥१०१२।। गा०-तब जो मनुष्य नौ दस महीने उस वमन तुल्य आहारको खाता है वह ग्लानिका पात्र क्यों नहीं होगा, भले ही वह अपना प्रियबन्धु हो ॥१०१३।। इस प्रकार आहारकी अशुचिताका कथन हुआ। आगे जन्मका कथन करते हैं गा०-उदरका मुख योनि उसका जन्मस्थान है। वहींसे उसका जन्म होता है। वह स्थान अशुचि है, देखने योग्य नहीं है, दुर्गन्धयुक्त है, मूत्र और रक्तके निकलनेका द्वार है। उसका नाम लेनेमें भी लज्जा आती है ॥१०१४।। गा०-यदि दूसरेके वस्तिमुख-गुदा अथवा योनिको देखने में भी ग्लानि होती है तो जो उसका आस्वादन करता है वह ग्लानिका पात्र क्यों नहीं है ॥१०१५।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838 839 840 841 842 843 844 845 846 847 848 849 850 851 852 853 854 855 856 857 858 859 860 861 862 863 864 865 866 867 868 869 870 871 872 873 874 875 876 877 878 879 880 881 882 883 884 885 886 887 888 889 890 891 892 893 894 895 896 897 898 899 900 901 902 903 904 905 906 907 908 909 910 911 912 913 914 915 916 917 918 919 920 921 922 923 924 925 926 927 928 929 930 931 932 933 934 935 936 937 938 939 940 941 942 943 944 945 946 947 948 949 950 951 952 953 954 955 956 957 958 959 960 961 962 963 964 965 966 967 968 969 970 971 972 973 974 975 976 977 978 979 980 981 982 983 984 985 986 987 988 989 990 991 992 993 994 995 996 997 998 999 1000 1001 1002 1003 1004 1005 1006 1007 1008 1009 1010 1011 1012 1013 1014 1015 1016 1017 1018 1019 1020