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भगवती आराधना भोगा चिंतेदव्या किंपागफलोवमा कडुविवागा ।
महुरा व मुंजमाणा पच्छा बहुदुक्खभयपउरा ।।१२३५।। 'भोगा चितेदवा' भोगाश्चिन्त्याः । 'किंपागफलोवमा' किम्पाकफलसदृशाः । 'कडुविपागा' कटु अनिष्टं विपाक: 'लं एषामिति कटुविपाकाः । 'मधुरा व' मधुरा इव । 'भुजमाणा' भुज्यमानाः । 'मझे' मध्ये । 'बहुदुक्खभयपउरा विचित्रदुःखभयाः ॥१२३५।। भोगनिदानदोषं कथयति
भोगणिदाणेण य सामण्णं भोगत्थमेव होइ कदं ।
'साहालंगा जह अत्थिदो वणे को वि भोगत्थं ॥१३३६।। 'भोगणिदाणेण य' भोगनिदानेन वा । 'सामण्ण' श्रामण्यं । 'भोगत्यमेव होइ कदं' भोगार्थमेव कृतं न कर्मक्षयाथं भवति । भोगनिदाने सति रागव्याकुलितचित्तस्य प्रत्यग्रकर्मप्रवाहस्वीकृती उद्यतस्य का संयतता ॥१२३६॥
आवडणत्थं जह ओसरणं मेसस्स होइ मेसादो ।
सणिदाणवंभचेरं अब्बभत्थं तहा होइ ॥१२३७।। _ 'आवडणत्थं' अभिघातार्थ। 'जह' यथा। 'ओसरणं' अपगमः। 'मेसस्स होदि' मेषस्य भवति । 'मेसादो' मेषात् । 'सणिवाणबंभचेरं' सनिदानस्य यतेब्रह्मचर्य। 'अब्बभत्यं' मैथुनाथ । 'तहा होदि' तथा भवति ॥१२३७॥
जह वाणिया य पणियं लाभत्थं विकिणंति लोभेण । मोगाण पणिदभूदो सणिदाणो होइ तह धम्मो ॥१२३८॥
___ गा०-ये भोग किंपाकफलके समान हैं। जैसे किंपाकफल खाते समय मीठा लगता है किन्तु उसका परिणाम अतिकटुक होता है। उसको खानेवाला मर जाता है । उसी प्रकार इन्द्रियोंके भोग भोगने में मधुर लगते हैं किन्तु उनका फल अतिकटु होता है पीछेसे जीवको बहुत दुःख और भय भोगना पड़ता है ।।१२३५।।
भोगनिदानके दोष कहते हैं
गा०-टो०-मुनिपद धारण करके भोगका निदान करनेसे तो मुनिपद भोगोंके लिए ही धारण किया कहलायेगा। कर्मक्षयके लिये नहीं कहलायेगा। क्योंकि भोगका निदान करनेपर चित्त रागसे व्याकूल रहता है और ऐसा होनेसे नवीन कर्मोका बन्ध होता है तब उसके मनिपद कैसा? जैसे कोई वनमें वृक्षकी शाखामें लगे फलोंको खाने में लग जाये तो उसके अपने इच्छित स्थानपर पहुंचने में विघ्न आ जाता है वैसे ही भोगका निदान करनेवाले श्रमणकी भी दशा होती है ।।१२३६।।
गा-जैसे एक मेढ़ा दूसरे मेढ़ेपर अभिघात करनेके लिये पीछे हटता है वैसे ही भोगोंका निदान करनेवाले यतिका ब्रह्मचर्य भी अब्रह्म अर्थात् मैथुनके लिए ही होता है ।।१२३७।।
१. साहोलंबो-मु०, मूलारा० । साहासंगा-आ० ।
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