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भगवती आराधना 'आसणत्यं' आसनार्थ । अस्या उपरि सुखेनासे इति मत्वा स यथा गुरुशिलोद्वहनखेदं नापेक्षते, स्वल्पं तस्या उपर्यासनसुखमपेक्षते स्वबुद्धया । 'तह भोगत्थं खु' तथा भोगार्थमेव । 'होदि' भवति । 'संजमवहणं' दुर्वहं संयमधारणं । "णिदाणेण' निदानेन सह ॥१२४१॥
बाह्यवस्तुजनितादिन्द्रियसुखात्तन्निमित्तवस्तुविनाशे यज्जायते दुःखं तदधिकतमं अतः स्वल्पसुखनिमित्तं को नाम सचेतनो दुःखभीरुर्दुःखाब्धी पतेदिति दर्शयति
भोगोवभोगसोक्खं जं जं दुक्खं च भोगणासम्मि ।
एदेसु भोगणासे जातं दुक्खं पडिविसिटुं ॥१२४२।। 'भोगोवभोगसोक्ख" मृष्टाशनताम्बूलादिकैः स्त्रीवस्त्रालङ्कारादिभिश्च जनितं यत्सुखं । 'भोगणासम्मि' सुखसाधनस्य वस्तुनो विनाशे च । 'जं जं दुक्ख च' यद्यदुःखं जायते । “एदेसु' एतयोः सुखदुःखयोः ‘भोगनाशे' सुखसाधनानां विनाशे च । 'जातं दुक्ख पडिविसिट्ठ अधिकतममिति यावत् ।।१२४२॥
देहे छुहादिमहिदे चले य सत्तस्स होज्ज कह सोक्खं ।
दुक्खस्स य पडियारो रहस्सणं चेव सोक्खं खु ॥१२४३॥ 'देहे' शरीरे मनुजानां । 'छुहादिमहिदे' क्षुधा, पिपासया, शीतोष्णेन, व्याधिभिश्च मथिते । 'चले अनित्ये च । 'सत्तस्स' आसक्तस्य । "किं च सुख होज्ज' किमत्र सुखं भवेत् । 'दुक्खस्स य पडिगारों' दुःखस्य प्रतीकारः । 'रहस्सणं चेव' -हस्वकरणं एव 'सोक्ख" सौख्यं । खु शब्दः पादपूरणे दुःखप्रतीका'रोऽल्पता वा दुःखस्य सुखमित्यनेनाख्यातम् ॥१२४३॥
___ सुखमन्तरेणापि अस्ति दुःखं, सुखं पुनरैन्द्रियकं न जायते दुःखं विना ततः सुखार्थी दुःखमेव प्रागात्मकरनेसे मुझे भोगोंकी प्राप्ति हो इस निदानके साथ जो संयम धारण करता है उसका संयम धारण भोगोंके लिये है अर्थात् स्वल्पसुखके लिए बहुत दुःख उठाता है ।।१२४१।।
__ आगे कहते हैं कि बाह्य वस्तुसे उत्पन्न होनेवाले इन्द्रिय सुखसे उस सुखमें निमित्त वस्तुका विनाश होनेपर जो दुःख होता है वह अधिक है, अतः थोड़ेसे सुखके लिये कौन दुःखभीरु ज्ञानी दुःखके समुद्र में गिरना पसन्द करेगा
___ गा०-भोग अर्थात् सुस्वादु भोजन पान आदि और उपभोग अर्थात् स्त्री वस्त्र अलंकार आदिसे होनेवाला सुख तथा सुखके साधनमें निमित्त वस्तुका विनाश होनेपर होनेवाला दुःख, इन दोनों सुख और दुःखमेंसे भोगके साधनोंका विनाश होनेपर होनेवाला दुःख बहुत अधिक होता है ।।१२४२॥
____ गा०-यह शरीर भूख, प्यास, शीत, उष्ण तथा रोगोंसे पीड़ित और विनाशशील है। इसमें जो आसक्त है उसे क्या सुख होता है ? वास्तवमें दुःखका प्रतीकार अथवा दुःखको कम करना ही सुख है। अर्थात् दुःखके प्रतीकारको या दुःखकी कमीको ही सुख मान लिया गया है। वास्तवमें सुख नहीं है ॥१२४३॥ __सुखके विना भी दुःख होता है किन्तु इन्द्रियजन्य सुख दुःखके विना नहीं होता। अतः
१. कारोत्पत्तौ वा-आ० मु० ।
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