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विजयोदया टीका
६२७ नोऽभिलषति न च दुःखाभिलाषः प्राज्ञस्य युक्त इति कथयति
सोक्खं अणवेक्खित्ता बाधदि दुक्खमणुगंपि.जह पुरिसं ।
तह अणवेक्खिय दुक्खं णत्थि सुहं णाम लोगम्मि ॥१२४४॥ 'सोक्वं' सौख्यं । 'अणवैखित्ता' अनपेक्ष्य । 'बापति दुक्खमणुगं पि' बाधते दुःखमण्वपि । 'जह पुरिसं' यथा पुरुषं । 'तह' तथा। 'अणवेक्खिय' अनपेक्ष्य । 'दुक्वं' दुःखं । 'लोगम्मि पत्थि सुह' लोके नास्ति सुखं नामन्द्रियकं । क्षुत्पिपासाम्यां पीडित एवाशनं पानं वान्वेषते । कठोरातपतप्त एव शीतं, शीतसंकुचिततनुरेव प्रावरणादिक, वातातपाम्बभिरेवोपद्रतो भवनमभिलषति । स्थानासनोपजातश्रम एव शय्यां कामयते । पादगमनजातखेदव्यपोहनायव शिबिकादिकं, वैरूप्यनिराकृतये एव वस्त्राणि भूषणानि च दोर्गन्ध्यनाशनायव तुरुष्ककालागुर्वादिकं, खेदगमनायव रमण्य इति सर्व दुःखप्रतीकारमेव । त्रिविधवेदोदयजनितः प्राणिनां लिङ्गत्रयवर्तिनां परस्पराभिलाषः । स तेषां परस्परशरीरसंसर्गे सत्यपि न विनश्यति । अभिलाषनिमित्तानां कर्मणां सद्भावात् । न हि कार्यमविकलकारणसन्निधौ न भवति । कामो हि सेव्यमानो वेदत्रयं प्रत्यग्रमाकर्षति । सतोऽप्यनुभवमुपहयते । कारणसम्पत्किार्यसम्पादो नित्यमिति निरन्तराभिलाषदहनदह्यमानचेतसो न कदाचिन्निव तिरस्ति । अपनीते तु वेदत्रये कारणाभावात कार्याभाव इति निरवशेषवेदापगमे स्वास्थ्यं यदस्य तदेव सुखमिति मन्यमानो. दृष्टान्तं दर्शयति ॥१२४४।।
जो इन्द्रिय सुखका अभिलाषी है वह पहले दुःख चाहता है किन्तु विद्वानके लिए दुःखकी चाह युक्त नहीं है यह कहते हैं
गा-जैसे सुखकी अपेक्षाके विना थोड़ा-सा भी दुःख पुरुषको कष्टदायक होता है वैसे ही लोकमें इन्द्रियजन्य सुख दुःखकी अपेक्षाके विना नहीं है ॥१२४४॥
टी०-भूख और प्याससे पीड़ित पुरुष ही भोजन और पेयको खोजता है। कठोर घामसे पीड़ित शीतल प्रदेश खोजता है। शीतसे जिसका शरीर ठिठुर गया है वही ओढना आदि खोजता है। वायु घाम वर्षा आदिसे पीड़ित ही मकान खोजता है। उठने बैठनेमें थका हुआ ही शय्या चाहता है। पैदल चलनेसे हुए कष्टको दूर करनेके लिए ही सवारी आदि चाहता है। विरूपता दूर करनेके लिए ही वस्त्र आभूषण चाहता है। दुर्गन्ध दूर करनेके लिए ही सुगन्धित द्रव्य लोबान आदि होते हैं। खेद दूर करनेके लिए ही सुन्दर स्त्रियाँ होती हैं। इस तरह सब दुःखके प्रतीकारके लिए हैं। स्त्री लिङ्गी, पुरुष लिङ्गी और नपुंसक लिङ्गी प्राणियोंको स्त्रीवेद पुरुषवेद और नपुंसकवेदके उदयसे परस्परमें रमण करनेकी अभिलाषा होती है। किन्तु वह अभिलाषा परस्परमें शारीरिक संसर्ग होनेपर भी नष्ट नहीं होती; क्योंकि उस अभिलाषामें निमित्त वेदकर्मका सद्भाव है। कारणोंके अविकल होते हुए कार्य अवश्य होता है। कामका सेवन करनेसे नवीन स्त्रीवेद पुरुषवेद या नपुंसकवेदका बन्ध होता है। तथा सत्तामें स्थित इन कर्मोके अनुभागमें वृद्धि होती है क्योंकि कारणके होनेपर कार्य नि
क कारणक होनेपर कार्य नित्य ही हुआ करता है। जिनके चित्त निरन्तर अभिलाषारूप आगसे जलते हैं उन्हें कभी भी शान्ति नहीं मिलती। तीनों वेदोंके चले जानेपर कारणका अभाव होनेसे कार्यका भी अभाव होता है । अतः वेदोंका पूर्णरूपसे अभाव होनेपर जो स्वास्थ्य होता है वही सख है ॥१२४४१॥ . ....
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