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विजयोदया टीका
६२९ सुट्ठ वि मग्गिज्जंतो कत्थ वि कयलीए पत्थि जह सारो।
तह पत्थि सुहं मग्गिज्जते भोगेसु अप्पं पि ॥१२४८॥ _ 'सुठ्ठ वि' सुष्टु अपि । 'मग्गिज्जतो' मृग्यमाणोऽपि । सारः कदल्यां क्वचिदपि मूले मध्येऽन्ते वा यथा नास्ति तथा भोगेष्वन्विष्यमाणं सुखं न विद्यते ।।१२४८॥
ण लहदि जह लेहंतो सुक्खल्लयमद्वियं रसं सुणहो।
से सगतालुगरुहिरं लेहंतो मण्णए सुखं ॥१२४९।। 'जध सुणगो सुक्खल्लगमट्ठियं लेहंतो रसं जहा ण लभदि' श्वा शुष्कमस्थि लिहन् सन् यथा रसं न लभते । 'सगतालुगरुहिरं लेहंतो सो सोक्खं मण्णदे' तीक्ष्णास्थिछिन्नस्वन्तालुगलितरुधिरमास्वादयन्सुखाभिमानं करोति । 'जह तह' यथा तथा । 'पुरिसो ण किचि सुखं लभई' पुरुषो न किंचित्सुखं लभते ॥१२४९।।
महिलादिभोगसेवी ण लहदि किंचिवि सुह तथा पुरिसो ।
सो मण्णदे वराओ सगकायपरिस्सम सुक्खं ।।१२५०।। _ 'महिलाविभोगसेवी' स्यादिभोगसेवनोद्यतः । तथा 'पुरिसो ण किंचि वि सुहं लहदि' तथा पुरुषो न किंचिदपि सुखं लभते एव । 'सो वरागो सगकायपरिस्समं सोक्सां मण्णवे' स वराकः स्वकायश्रमं सौख्यं मन्यते ॥१२५०॥
अनुभवसिद्धं सुखं कथं नास्तीति शक्यते वक्तुं इत्याशक्य असत्यपि सुखे सुखज्ञानं जगतो भवति विपर्यस्तं सुखकारणस्येति दृष्टान्तोपन्यासेन वदति
दीसइ जलं व मयतण्हिया हु जह वणमयस्स तिसिदस्स ।
भोगा सुहव दीसंति तह य रागेण तिसियस्स ॥१२५१॥ 'दोसइ वणमयस्स तिसिवस्स जहा जलं मयतण्हिया' वने मृगेण हरिणादिना तृषाभिभूतेन जलकांक्षा
गा०-जैसे अच्छी तरह खोजने पर भी केलेके वृक्षों मूल मध्य या अन्तमें कहीं भी कुछ सार नहीं है वैसे ही खोजने पर भी भोगोंमें कुछ भी सार नहीं है ॥१२४८||
गा०—जैसे कुत्ता सूखी हड्डीको चबाते हुए रस प्राप्त नहीं करता। किन्तु तीक्ष्ण हड्डीके द्वारा कटे अपने तालुसे झरते हुए रक्तका स्वाद लेते हुए सुख मानता है ॥१२४९।।
गा०-उसी तरह पुरुष स्त्री आदि विषयभोगमें किश्चित् भी सुख प्राप्त नहीं करता वह बेचारा अपने शरीरके श्रमको ही सुख मानता है ।।१२५०॥
विषयभोगमें सुख अनुभवसे सिद्ध है आप कैसे कहते हैं कि उसमें सुख नहीं है ऐसी आशंका करने पर दृष्टान्त द्वारा कहते हैं कि सुखके नहीं होने पर भी सुखके कारणमें विपरीत बुद्धि होनेसे जगत्को सुखका बोध होता है
गा०-जैसे बनमें हरिण आदि जब प्याससे व्याकुल होकर जलकी इच्छा करते हैं तो उन्हें मरीचिका जलके समान प्रतीत होती है किन्तु हरिणके उसे जल मानने पर भी वह जल रूप नहीं होती। उसी प्रकार रागके प्यासेको भोग सुखकी तरह प्रतीत होते हैं ॥१२५१॥
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