________________
६३२
भगवती आराधना
देविंदचक्कवट्टी य वासुदेवा य भोगभूमीया ।
भोगेहिं ण तिप्पति हु तिप्पदि भोगेसु किह अण्णो || १२५९ ||
'देविंद' देवानामधिपतयः, चक्रलाञ्छना वासुदेवा अर्धचक्रवर्तिनः, भोगभूमिजाश्च भोगेनं तृप्यन्ति । कथमन्यो जनस्तृप्तिमुपेयाद्भोगैः । सुलभामितभोगसाधना श्चिरजीविनः स्वतन्त्राश्चामी । अन्ये तु भवादृशा जठरभरणमात्रमपि कर्तुं अशक्ताः स्वल्पायुषः, पराधीनवृत्तयश्च तृप्यन्तीति का कथा ॥१२५९॥ संपत्तिविवत्तीय अज्जणरक्खणपरिग्गहादीसु ।
भोगत्थं होदि रो उद्घयचित्तो य घण्णो य ।। १२६० ।।
'संपत्तिविवत्तीय' सम्पत्सु विपत्सु च । 'अज्जण रक्खणपरिग्गहादीसु' द्रव्यस्थालब्धस्यार्जने', पुञ्जीकरणे, राशीकृतस्य रक्षणे । पर हस्ते विप्रकीर्णस्य ग्रहणे । आदिशब्देन तद्वययकरणे वा । भोगत्थं अनुभवार्थं । अर्जनादिषु प्रवृत्तः । 'उध्दुदचित्तो य णरो होवि' चलचित्त उत्कण्ठावांश्च भवति नरः । द्रव्यसम्पदि जातायां रागाच्चलचित्तं भवति । द्रविणादिविनाशे कथं जीवामि पुनर्द्रव्याजनं करोमीति ॥१२६०॥ उद्घयमणस्स ण सुहं सुहेण य विणा कुदो हवदि पीदी ।
पीदीए विणा ण रदी उद्घयचित्तस्य घण्णस्स ।।१२६१।।
'उद्धबमणस्स' व्याकुलचित्तस्य 'ण सुहं' न सुखं भवति । 'सुहेण य विणा कुवो हवदि पोदी' सुखेन विना कुतो भवति प्रीतिस्तृप्तिः । 'पीवीए विणा' प्रीत्या विना । 'ण रवी' न रतिः । 'उदूधुदचित्तस्स' व्याकुलचेतसः । ' घण्णस्स' उत्कण्ठाडाकिन्या गृहीतस्य ॥ १२६१ ॥
तृप्ति नहीं होती, वैसे ही भोगोंसे जीवकी तृप्ति नहीं होती || १२५८||
गा० - टी० – देवोंके अधिपति इन्द्र, चक्रवर्ती, वासुदेव अर्थात् अर्धचक्री और भोगभूमियाँ जीव भी भोंगों तृप्त नहीं होते । तब साधारण मनुष्य कैसे भोगोंसे तृप्त हो सकता है ? अर्थात् इनके लिए भोगोंके अपरिमित साधन सुलभ हैं, तथा इनकी आयु भी बहुत होनेसे चिरकालतक ये जीवित रहते हैं और किसीके अधीन न होनेसे स्वतन्त्र होते हैं । आप सरीखे साधारण मनुष्य तो पेट भरनेमें भी असमर्थ और थोड़ी आयुवाले तथा पराधीन होते हैं । अतः उनकी भोगों से तृप्ति होनेकी तो बात ही क्या है ? || १२५९||
गा० - सम्पत्ति होनेपर मनुष्य अप्राप्त द्रव्यके कमाने में एकत्र हुए द्रव्यके रक्षणमें, दूसरेके हाथमें गई सम्पत्तिको उससे लेनेमें और आदि शब्दसे उसे खर्च करनेमें, तथा भोगनेमें व्याकुल रहता है और विपत्तिमें अर्थात् धन आदिका विनाश होनेपर कैसे मैं जीवित रहूँगा ? कैसे पुनः द्रव्य कमाऊँगा इस उत्कण्ठासे व्याकुल रहता है | १२६० ॥
गा० - जिसका चित्त व्याकुल रहता है उसे सुख नहीं होता । सुखके विना प्रीति नहीं होती । प्रीति विना रति नहीं होती । इस तरह जिसका चित्त व्याकुल रहता है और जो उत्कण्ठारूपी डाकिनी से ग्रस्त है उसे सुख कैसे हो सकता है और सुखके विना प्रीति और प्रोतिके विना रति सम्भव नहीं है । १२६१ ॥
१. स्यावर्जनं पु० - आ० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org