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विजयोदया टीका
६३७ दाऊण जहा अत्थं रोधणमुक्को सुहं घरे वसइ ।
पत्ते समए य पुणो रुंभइ तह चेव घारांणओ ॥१२७३।। 'दाऊण' दत्वा । 'अत्यं' अर्थ । 'जह' यथा । 'रोधणमुक्को' रोधेन मुक्तः । 'सुहं घरे वसदि खु' सुखेन गृहे वसति । 'पत्ते समये य' प्राप्ते चावधिकाले । 'पुणो भइ' पश्चाच्च रुंम्यते । 'तथा चेव' पूर्ववदेव । 'धारणीओं अधमणः ॥१२७३।। दान्तिके योजयति
तह सामण्णं किच्चा किलेसमुक्कं सुहं वसइ सग्गे । संसारमेव गच्छइ तत्तो य चुदो णिदाणकदो ॥१२७४॥ संभूदो वि णिदाणेण देवसुक्ख च चक्कहरसुक्ख ।
पत्तो तत्तो य चुदो उववण्णो 'तिरियवासम्मि ।।१२७५।। 'संभूदो वि णिदाणेण' निदानेन संभूतः कश्चित् । 'देवसुक्ख" देवसुखं । चक्कधरसोक्ख' चक्रधरसौख्यं । 'पत्तो' प्राप्तः । 'तत्तो य चुदो' तस्मात्सुखात्प्रच्युतः उत्पन्नः । 'उववण्णो' उपपन्नः । तिरियवासम्मि' उतिर्यगावासे ॥१२७४||
- णच्चा दुरंतमद्धयमत्ताणमतप्पयं अविस्सायं ।
भोगसुहं तो तम्हा विरदो मोक्खे मदिं कुज्जा ॥१२७६॥ 'णच्चा' ज्ञात्वा। 'दुरंत' दुरवसानदुःखफलमिति यावत् । 'अर्धवं' अनित्यं । 'अत्ताणं' अत्राणं । 'अतप्पगं' अतर्पकं । 'अविस्सायं' असकृवृत्तं । 'भोगसुखं भोज्यन्ते, सेव्यन्ते इति भोगाः स्त्र्यादयः, तर्जनितं सुखं । 'तो' पश्चात् । 'तम्हा' तस्मात् । भोगसुखात्, दुरन्तादिदुष्टदोषात् । 'विरवों' व्यावृत्तः । 'मोक्खे' मोक्षे' वाला अपने द्वारा किये गये पुण्यसे स्वर्ग प्राप्त करके भी पुनः गिरता है, यह कहते हैं
___गा०-जैसे धन देकर कारागारसे मुक्त हुआ कर्जदार सुखपूर्वक घरमें रहता है। किन्तु कर्ज चुकानेका समय आने पर पुनः पकड़कर बन्द कर दिया जाता है ।।१२७३॥
____गा०-वैसे ही मुनिपद धारण करके निदान करने वाला स्वर्गमें क्लेश रहित सुखपूर्वक रहता है और वहाँसे च्युत होकर संसारमें ही भ्रमण करता है ।।१२७४॥
____ गा०-संभूत नामक व्यक्ति निदानके द्वारा देवगतिके सुख और चक्रवर्तीके सुखको प्राप्त हुआ अर्थात् मरकर सौधर्म स्वर्गमें उत्पन्न हुआ और वहाँसे मरकर ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती हुआ । उसके पश्चात् मरकर तिर्यश्चगति (नरक गति) में उत्पन्न हुआ ॥१२७५॥
गा०-जो भोगे जाते हैं उन स्त्री आदिको भोग कहते हैं। उनसे होने वाला सुख ऐसा दुःख देता है जिसका अन्त होना दुष्कर है, तथा वह भोग जन्य सुख अनित्य है, अरक्षक है, उससे तृप्ति नहीं होती, अनादि संसारमें उसे जोवने अनेक बार भोगा है। अतः उससे मनको हटाकर समस्त कर्मोंके अपायरूप मोक्षमें मन लगाना चाहिए। अर्थात् चारित्र और तपका पालन करनेसे
१-२-३. णिरय-मु०।
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