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भगवती आराधना वता जलमिव दृश्यते मृगतृष्णिका । न सा मृगेण जलतयोपलब्धेऽपि जलं भवति । तथा 'रागेण तिसिदस्स भोगा सुहं व दीसंति' रागतृषितेन भोगाः सुखमिव दृश्यन्ते ॥१२५१॥
वग्यो सुखेज्ज मदयं अवगासेऊण जह मसाणम्मि ।
तह कुणिमदेहसंफंसणेण अबुहा सुहायंति ।।१२५२।। 'वग्यो सुखेज्ज' श्मशाने व्याघ्रो मृतकमवग्रास्य तृप्यति यथा तथा कुथितदेहसंस्पर्शनेनाबुधा सुखाधिगमहर्षनिर्भरा भवन्ति ।।१२५२॥ भवतु नाम सुखं भोगस्तथापि तदत्यल्पमिति निवेदयति
तह अप्पं भोगसुहजह घावंतस्स अठितवेगस्स ।
गिम्हे उण्हातत्तस्स होज्ज छायासुह अप्पं ॥१२५३।। 'तथा अप्पं भोगसुहं धावंतस्स अठितवेगस्स गिर्भ उण्हातत्तस्स जहा छायासुहं अप्पं तह अप्पं भोगसुहं' धावतोऽस्थितवेगस्य ग्रीष्मे उष्माभितप्तस्य यथा मार्गस्थकतरुच्छायासुखमल्पं भोगसुखं तथा ॥१२५३।।
अहवा अप्पं आसाससुहं सरिदाए उप्पियंतस्स ।
भूमिच्छिक्कंगुट्ठस्स उब्भमाणस्स होदि सोत्तेण ॥१२५४।। 'अहवा' अथवा । 'अप्पं' अल्पं । 'आसाससुहं' आश्वास एव सुखं । 'सरिदाए' नद्यां । 'उप्पियंतस्स' निमज्जतः । 'भूमिच्छिक्कंगुठस्स' भूमिस्पृष्टाङ्गुष्ठस्य । 'सोत्तेण उब्भमाणस्स' स्रोतसा प्रवाहेनोह्यमानस्य । अल्पं आश्वाससुखं तद्वदिन्द्रियसुखमत्यल्पमित्यतिक्रान्तेन संबन्धः ।।१२५४।।
इन्द्रियसुखानि यद्यलब्धपूर्वाणि युक्तो विस्मयस्तव तानि सर्वाणि अनन्तवारपरिभुक्तान, तेषु भुक्तेषु परित्यक्तेषु न युक्तो विस्मय इति अनादरं जनयति तेषु सूरिः
जावंति केइ भोगा पत्ता सव्वे अणंतखुत्ता ते ।
को णाम तत्थ भोगेसु विभओ लद्धविजडेसु ।।१२५५।। गा०-जैसे स्मशानमें व्याघ्र मुर्देको खाकर सुखी होता है वैसे ही दुर्गन्धित शरीरके आलिंगनमें अज्ञानी सुख मानकर हर्षसे भर जाते हैं ॥१२५२॥
आगे कहते हैं कि भोगमें भले ही सुख हो किन्तु वह सुख अति अल्प है
गा०-जैसे ग्रीष्म ऋतुमें अत्यन्त वेगसे दौड़ते हुए और मध्यकालके सूर्यको किरणोंसे संतप्त पुरुषको मार्गमें स्थित एक वृक्षकी छायामें जानेसे थोड़ा-सा सुख होता है जैसे ही भोगमें अति अल्प सुख है ॥१२५३॥
गा०–अथवा नदीमें डूबते हुए और प्रवाहके द्वारा बहाकर ले जाते हुए मनुष्यको भूमिसे अंगूठेके छू जाने पर जैसा अल्प आश्वास सुख होता है कि मैं तट पर लग जाऊँगा, उसी प्रकार इन्द्रियजन्य सुख अति अल्प होता है ।।१२५४||
गा-यदि इन्द्रिय सुख पूर्व में कभी प्राप्त न हुए होते तो उनकी प्राप्तिमें हर्ष होना १. स्मशाने मृतक शवं भुक्त्वा व्याघ्रस्तुप्यति-आ० ।
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