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विजयोदया टीका
जो पुण इच्छदि रमिदु अज्झप्पसुहम्मि णिव्वुदिकर म्मि | कुदि रद उवसंतो अज्झष्पसमा हु णत्थि रदी ।। १२६२ ।।
'जो पुण इच्छदि रमिदु' यः पुना रमितुं इच्छति । 'सो कुणदि रवि' स करोतु रति । क्व ? 'अज्झप्पसुखम्मि' अध्यात्मसुखे । 'णिव्वुदिकरम्मि' निवृतिकरे । 'उवसंतो' उपशान्तरागकोपः । एतदुक्तं भवति - मनोज्ञामनोज्ञविषयसन्निधाने स्वसंकल्पहेतुकौ यौ रागद्वेषो तो परित्यज्य निवृत्तितृप्तिकरे अध्यात्मसुखे रतिं करोतु । 'अज्झम्पसमा आत्मस्वरूपविषया रतिरध्यात्मशब्देनोच्यते । तया सदृशी रतिः । " णत्थि खु' न विद्यते एव । यस्मात् भोगरतिरध्यात्मनो रत्या न सदृशी ॥१२६२ ॥
कथम् ?
अप्पायत्ता अज्झपरदी भोगरमणं परायतं ।
भोगरीए चइदो होदि ण अज्झप्परमणेण ॥ १२६३।।
'अप्पायत्ता' स्वायत्ता । 'अज्झप्परदी' आत्मस्वरूपविषया रतिः परद्रव्यानपेक्षणात् । 'भोगरमणं' भोगरतिः 'परायत्तं' परायत्ता परद्रव्यालम्बनत्वात् । तेषां च कथंचिदेव सान्निध्यं क्वचिदेव कस्यचिदेवेति । एतेन स्वायत्ततया परायत्ततया चासाम्यमाख्यातं । प्रकारान्तरेणापि वैषम्यं दर्शयति । 'भोगरदीए चइदो होदि' भोगरत्या च्युतो भवति । न प्रच्युतो भवति 'अज्झप्परमणेण' अध्यात्मरत्या ॥१२६३॥
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अनेक विघ्नसहिता विनाशिनी च भोगरतिः, अध्यात्मरतेस्तु भाविताया न नाशो नापि विघ्न इति कथयत्युत्तरगाथा-
भोगरदीए णासो नियदो विग्घा य होंति अदिबहुगा । अझप्परदीए सुभाविदाए णासो ण विग्घो वा ।। १२६४ ॥
गा० - टी० - हे क्षपक ! जो तू रमण करना चाहता है तो रागद्वेषका शमन करके परम तृप्तिकारक अध्यात्म सुखमें रति कर । कहनेका अभिप्राय यह है कि इष्ट और अनिष्ट विषयोंके प्राप्त होनेपर 'यह अच्छा है और यह बुरा है' इस प्रकारके संकल्पके कारण जो रागद्वेष होते हैं उन्हें त्यागकर तृप्तिकारक अध्यात्म सुखमें रमण कर । यहाँ अध्यात्म शब्दसे आत्मस्वरूप विषयक रति कही है । उसके समान कोई रति नहीं हैं। क्योंकि भोगसम्बन्धी रति अध्यात्म विषयक रतिके समान नहीं है ॥ १२६२||
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गा० - टी० – क्योंकि आत्मस्वरूप विषयक रति अपने अधीन है उसमें परद्रव्यकी अपेक्षा नहीं है । किन्तु भोग रति पराधीन है क्योंकि उसमें परद्रव्यका अवलम्बन लेना होता है । और परद्रव्य कभी-कभी ही किसी किसीको ही थोड़े बहुत प्राप्त होते हैं । इससे स्वाधीन और पराधीन होनेसे दोनोंमें असमानता कही । अन्य प्रकारसे भी दोनोंमें विषमता बतलाते हैं—
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भोग रतिसे तो मनुष्य वंचित हो जाता है किन्तु अध्यात्म रतिसे नहीं होता क्योंकि आत्म द्रव्य सर्वत्र सर्वदा और सर्वथा उसके पास रहता है ।। १२६३॥
भोग रतिमें अनेक विघ्न रहते हैं और वह नष्ट होने वाली है किन्तु भावित अध्यात्म रतिका कभी नाश नहीं होता और न उसमें विघ्न आता है, यह आगे कहते हैं
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