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विजयोदया टोका
६२५ 'जह वाणिया' यथा वणिजः । 'पणिय' पण्यं । 'लाभत्थं' लाभार्थ । 'विक्किणंति' विक्रीणन्ति । 'लोभेण' लोभेन । 'भोगाणं' भोगानां । 'पणिदो भूदो' पण्यभूतः । 'सणिदाणो' सनिदानः । 'तहा धम्मो होदि' तथा धर्मो भवति ॥१२३८॥ भोगनिदानवतः' श्रामण्यं प्रणिंद्यति
सपरिग्गहस्स अब्बंभचारिणो अविरदस्स से मणसा ।
कारण सीलवहणं होदि हु णडसमणरूवं व ॥१२३९।। 'सपरिग्गहस्स' सपरिग्रहस्य भोगनिदानवतो वेदजनितो रागोऽभ्यन्तरः परिग्रह इति सपरिग्रहः । तस्य । 'अब्बंभचारिणों मनसा मैथुनकर्मणि प्रवत्तस्य । 'अविरवस्स' अव्यावृत्तस्य मैथनात् । 'मनसा' चित्तेन । 'से' तस्य कायेन ख शरीरेणव । 'सोलवहणं' ब्रह्मव्रतवहनं । 'होदि' भवति । 'णडसमणरूवं व' नटानां श्रमणरूपमिव । कायेन भावश्रामण्यरहितं यथा अफलमेवमिदमपि इति भावः ॥१२३९॥
रोगं इच्छेज्ज जहा पडियारसुहस्स कारणे कोई ।
तह अण्णेसदि दुक्खं सणिदाणो भोगतण्हाए ॥१२४०॥ 'रोगं कंखेज्ज' व्याधिमभिलषति । 'जहा कोइ' यथा कश्चित। किमर्थ ? 'पडियारसुहस्स कारणे' औषधसेवासुखाधिगमनाथं । 'तह' तथा 'अविरदस्स' अव्यावत्तस्य । 'अण्णेसदि' अन्वेषते। 'दुक्ख" दुःखं । कः ? 'सणिवाणो' सनिदानः । 'भोगतहाए' भोगतृष्णया ॥१२४०॥
खंधेण आसणत्थं वहेज्ज गरुगं सिलं जहा कोइ ।
तह भोगत्थं होदि हु संजमवहणं णिदाणेण ।।१२४१॥ 'खंधेण' स्कन्धेन । 'जहा कोई' यथा कश्चित् । 'गरुगं सिलं' गुर्वी शिलां । 'वहेज्ज' वहति । किमर्थं ?
गा०-जैसे व्यापारी लोभवश लाभके लिये अपना माल बेचता है। वैसे ही निदान करनेवाला मुनि भोगोंके लिए धर्मको बेचता है ॥१२३८॥
भोगोंका निदान करनेवालेके मुनिपदकी निन्दा करते हैं
गा०-टी०-भोगोंका निदान करनेवालोंके अभ्यन्तरमें वेदनित राग रहता है अतः वह परिग्रही है। तथा वह मनसे मैथुन कर्ममें प्रवृत्त होनेसे अब्रह्मचारी है और मनसे मैथुनसे निवृत्त न होनेसे अविरत है। वह केवल शरीरसे ब्रह्मचर्यव्रत धारण करता है अतः वह नटश्रमण है । जैसे नट श्रमणका वेश धारण करता है वैसे ही उसने भी श्रमणका वेश धारण किया है । भावश्रामण्यके विना केवल शरीरसे मुनि बनना जैसे व्यर्थ है उसी तरह उस मुनिका मुनिपद भी व्यर्थ है ।।१२३९।।
गा०-जैसे कोई औषधि सेवनके सुखकी अभिलाषासे रोगी होना चाहता है वैसे ही निदान करनेवाला भोगोंकी तृष्णासे दुःख चाहता है ।।१२४०।।
___गा०–मैं इसके ऊपर सुखपूर्वक बैठेंगा, ऐसा मानकर जैसे कोई भारी शिलाको कन्धेपर उठाता है और उसके उठानेके कष्टकी परवाह नहीं करता। वैसे ही इस दुर्धर संयमको धारण
१. चतः अमान्यं प्रणिगदति-आ० ।
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