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विजयोदया टीका
६२३ 'इच्चेवमादि अविचिंतयदो माणो हवेज्ज पुरिसस्स । एदे सम्म अत्थे पसदो णो होइ माणो हु ॥१२३२॥ जइदा उच्चत्तादिणिदाणं संसारवड्ढणं होदि ।
कह दीहं ण करिस्सदि संसारं परवधणिदाणं ॥१२३३॥ 'जइदा' यदि तावत् । 'उच्चत्तादिणिदाणं' उच्चैर्गोत्रता, पुरुषत्वं, स्थिरशरीरता, अदरिद्रकुलप्रसूतिवन्धतेत्येवमादिकं मक्तः परम्परया कारणमपि चित्ते क्रियमाणमपि । 'संसारवडढणं होदि' संसारवद्धि करोति । 'किधण करिस्सवि' कथं न करिष्यति । 'दीहसंसारं' दीर्घसंसारं। 'परवणिदाणं' परवधे चित्तप्रणिधानं ॥१२३३॥ आचार्यगणधरत्वादिप्रार्थना कथमशोभना रत्नत्रयातिशयलाभप्रार्थिता हि सेत्याशङ्कायामुच्यते
आयरियत्तादिणिदाणे वि कदे णत्थि तस्स तम्मि भवे ।
धणिदं पि संजमंतस्स सिज्झणं माणदोसेण ॥१२३४॥ 'आयरियत्तादिणिदाणे वि कदे' आचार्यत्वादिनिदानेऽपि कृते । 'पत्थि तस्स' नास्ति तस्य । 'तम्मि भवे' तस्मिन्भवे निदानकरणभवे । 'धणिदं पि संजमंतस्स' नितरामपि संयम कुर्वतः । किं नास्ति 'सिज्झणं' सेधनं मुक्तिः । केन ? 'माणदोसेण' मानकषायदोषेण । स ह्याचार्यत्वादिप्रार्थनां करोति । पृष्टो भविष्यामीति संकल्पेन, ततोऽप्यहंयुता ॥१२३४॥
भोगदोषचिन्तायां सत्यां निदानं तथा न भवति इति कथयतिहोता है, विपत्तिमें पड़नेपर वही एकाकी देखा जाता है ।।१२३१॥
गा०-इत्यादि बातोंका विचार न करनेवाले पुरुषको मान होता है। और जो इन बातोंको सम्यकपसे देखता है उसको मान नहीं होता ॥१२३२॥
गा०-उच्चगोत्र, पुरुषत्व, शरीरकी स्थिरता, अदरिद्रकुलमें जन्म, बन्धु-बान्धव आदि परम्परासे मुक्तिके कारण हैं ऐसा चित्तमें विचारकर इनका निदान करना कि ये मुझे प्राप्त हों, यदि संसारको बढ़ानेवाला है तो दूसरेके बधका चित्तमें निदान करना दीर्घ संसारका कारण क्यों नहीं है ? अवश्य है ।।१२३३॥
यहाँ कोई शंका करता है कि रत्नत्रयमें अतिशय लाभकी भावनासे मैं आचार्य गणधर आदि बनूं ऐसी प्रार्थना क्यों बुरी है ? इसका उत्तर देते हैं
गा०-आचार्य पद आदिका निदान करनेपर भी जिस भवमें निदान किया है उस भवमें अत्यन्त संयमका पालन करनेपर भी मानकषायके दोषके कारण उसकी मुक्ति नहीं होती, क्योंकि
वह 'मैं पूज्य होऊँ' इस संकल्पसे आचार्य आदि होनेकी प्रार्थना करता है । इससे उसका अहंकार • प्रकट होता है ॥१२३४॥
आगे कहते हैं कि भोगोंके दोषोंका चिन्तवन करनेसे भोगोंका निदान नहीं होता१. एतां टीकाकारो नेच्छति । २. हि सतीत्या-आ० ।
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