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भगवतो आराधना
परिणामा' इदमेव द्रव्यमिति कृत्वा प्रवृत्तानि वचांसि ओदनं पच, कटं कुर्वित्येवमादीनि व्यवहारसत्यं । अहिंसालक्षणो भावः पाल्यते येन वचसा तद्भावसत्यं निरीक्ष्य स्वप्रयताचारो भवेत्येवमादिकं । पल्योपमसागरोपमादिकमुपमा सत्यम् ॥११८७॥ मृषादिवचनत्रयलक्षणं कथयन्ति
तन्विवरीदं मोसं तं उभयं जत्थ सच्चमोसं तं ।
तग्विवरीया भासा असच्चमोसा हवे दिट्ठा ॥११८८।। 'तम्विवरी' सत्यविपरीतं । 'मोसं' मृषा । 'असदभिधानमनृतं' [त० सू० ७१] इति वचनात् । मिथ्याज्ञानमिथ्यादर्शनयोरसंयमस्य वा निमित्तं वचनमसदभिधानं अप्रशस्तं तत्सत्यविपरीतं । 'तं उभयं' तत्सत्यमन। च उभयं । 'जत्थ' यस्मिन् वाक्ये । 'तं तद्वाक्यं । 'सच्चमोसं' सत्यमषेत्युच्यते । 'तन्विवरीदा भासा' सत्यादनृतान्मिश्राच्च पृथग्भूता । 'भासा' भाषा वचनं 'असच्चमोसा' असत्यमृषेति । 'हवे' भवेत् । “दिहा' दृष्टा पूर्वागमेषु । एकान्तेन न सत्या नापि मृषा नोभयमिश्रा किंतु जात्यन्तरं यथा वस्तु नैकान्तेन नित्यं नापि अनित्यं नापि सर्वथा एकान्तयोः समुच्चयं किंतु कथंचिद्रूपान्नित्यानित्यात्मकं । एवमियं भारती ॥११८८।। सा नवप्रकारा तस्याश्च भेदा इयन्त इति गाथाद्वयेनाचष्टे
आमंतणि आणवणी जायणि संपुच्छणी य पण्णवणी । पच्चक्खाणी भासा भासा इच्छाणुलोमा य ॥११८९॥
अतीत और अनागत परिणाम रूप यही द्रव्य है ऐसा मानकर किया गया वचन व्यवहार सत्य है जैसे भात पकाओ या चटाई बुनो। ये दोनों परिणाम वर्तमानमें नहीं हैं क्योंकि चावल पकने पर भात बनेगा और बुनने पर चटाई होगी। फिर भी अनागत परिणामकी अपेक्षा इनका व्यवहार होता है। जिस वचनके द्वारा अहिंसा रूप भाव पाला जाता है वह वचन भाव सत्य है। जैसे देखकर सावधानतापूर्वक प्रवृत्ति करो आदि । पल्योपम, सागरोपम आदिका जो कथन आगममें कहा है वह उपमा सत्य है ।।११८७।।
असत्य आदि तीन वचनोंका लक्षण कहते हैं
गा०-टी.-सत्यसे विपरीत वचन असत्य है। तत्त्वार्थ सूत्रमें कहा है 'असत् कहना झूठ है।' जो वचन मिथ्याज्ञानमें, मिथ्याश्रद्धानमें और असंयममें निमित्त होता है वह वचन असत् कथन रूप होनेसे अप्रशस्त है । अतः सत्यसे विपरीत है। जो वचन सत्य और असत्य दोनों रूप होता है वह वचन सत्यमषा है । जो वचन सत्य, असत्य और सत्य असत्यसे विपरीत होता है उसे पूर्व आगमोंमें असत्यमृषा कहा है । वह वचन न तो एकान्तसे सत्य होता है न एकान्तसे असत्य होता है और न सत्यासत्य होता है किन्तु जात्यन्तर होता है। जैसे वस्तु न तो एकान्तसे नित्य है, न अनित्य है और न सर्वथा नित्य और सर्वथा अनित्य है, किन्तु कथंचित् नित्यानित्य है। उसी प्रकार यह असत्यमृषा वचन भी होता है ॥११८८॥
उस असत्यमृता वचनके नौ भेद दो गाथाओंसे कहते हैं१. मान्प्रति इद-मु०। भिधेयांग-आ० मु०। २. दा यत इति-प० । दा य इति-आ० ।
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